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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जब मुन्नी बनी मुन्नी मोबाइल

एक थी मुन्नी।उसका नाम जरूर मुन्नी था पर न तो वह बदनाम थी और न ही उसका झंडू बाम से कोई सम्बन्ध था।वैसे तो वह इतनी मुन्नी थी भी नहीं।वह तो ठीकठाक शक्ल सूरत और अक्ल वाली युवती थी।वह थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना जानती थी।उसके पास देखने के लिए कुछेक सपने थे जिन्हें वह बार बार देखा करती थी।उन सपनों में से एक ऐसा सपना भी था जिसे देखने के लिए उसे नींद की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई।वह एक अदद मोबाइल का सपना रात दिन देखा करती थी जिससे वह मनचाहे गाने और फिल्म जब चाहे गुपचुप देख सुन सके।
वह एक गारमेंट फैक्ट्री में तैयार कपड़ों को पैक करने का काम करती थी।इस फैक्ट्री में विदेशों को निर्यात होने वाले कपड़े बनते थे।वह हफ्ते में छ: दिन सुबह आठ से पांच तक पैकिंग का काम करती जिससे उसे आठ सौ रुपये की हर माह पगार मिलती।उसकी जिंदगी बिना किसी रुकावट और खेद के साथ बीत रही थी।कभी कभी कपड़ों को पैक करते हुए वह उन्हें देख कर मुग्ध हो जाती थी।वह चारखाने वाली छोटी सी स्कर्ट देखती तो यह सोच कर शरमा जाती कि हाय दईया इसे कौन कैसे पहन पाती होगी।कभी वह झीनी सी फ्रॉक देखती तो  लजा जाती।
मुन्नी भले ही कम बढ़ी लिखी थी पर वह अपने आसपास की दुनिया और वहां के हालात को ठीक से जानते थी।उसे ये विदेश जाने वाले कपड़े अच्छे तो लगते थे  पर इतने भी अच्छे नहीं कि उन्हें धारण कर पाने का कोई ख्वाब संजोती।मुन्नी की तो बस यही साध थी कि जैसे तैसे उसे एक अदद मोबाइल मिल जाये।वह जानती थी कि यह उसे तभी मिल सकता है जब वह कम से कम बीस माह तक सौ रुपये बचाए।उसे पता था कि यह काम इतना आसान नही है।उसने एक बार कोशिश की थी पर वह अपनी बचत को कभी अपने स्मैकिये  भाई  की गिद्ध दृष्टि से बचा नहीं पाई।
फिर एक दिन ........वह उस दिन भी और दिनों की तरह फैक्ट्री में अपने काम में लगी थी|वहां गोदाम में भारी उमस थी।उसने अपनी बहुरंगी सूती चुनरिया उतार कर पैक सामान के ऊपर रख दी थी।तभी फैक्ट्री में दो गोरे चिट्टे मर्द और एक शफ्फाक मेम नमूदार हुए।उनके साथ फेक्ट्री मालिक चल रहा था और पीछे पीछे खींसे निपोरता एक सुपरवाइजर। वे तैयार माल देखते आगे बढ़ रहे थे।तभी मेम उसके पास आकर ठिठकी।उसने अंग्रेजी में फैक्ट्री मालिक से क्या  कहा ,मुन्नी की समझ में कुछ नहीं आया।मेम उसकी चुनरिया को एकटक निहार रही थी।तब फेक्ट्री मालिक की आवाज उसे सुनाई दी मुन्नी चल अपना दुपट्टा ओढ़|यह मैडम तेरी तस्वीर उतारेंगी।वह झट से अपनी चुनरिया ओढ़ कर खड़ी हो गई।मैडम ने उसकी अपने कैमरे से अनेक तस्वीर उतारी।फिर वह वैरी नाईस - वैरी नाईस कहते हुए आगे बढ़ी।फिर उसे  कुछ याद आया।उसने अपने बैग से निकाल कर एक चमकदार काले रंग का मोबाइल उसकी ओर बढ़ा दिया।गिफ्ट .....इट इज फॉर यू।
मुन्नी उसे हाथ में लिए हक्की बक्की से खड़ी रही।उसे यकीन नहीं हुआ  था कि सपने ऐसे भी साकार हो जाते हैं।उसने अपने मोबाइल में सिम डलवाया।कुछ गाने और फ़िल्में भी उसमें डलवा लिए।अब उसके मोबाइल की घंटी जब -तब बज उठती थी ।कोई उसे बीमे कराने का लाभ बताता है तो कोई उसे घटी दरों पर बैंकाक भेजने की बात करता ।शोहदे उससे उसकी एक रात की कीमत पूछते । कोई उसे दोस्त बनाने की बात करता ।लगभग सारा बाजार  मोबाइल के सहारे किसी न किसी तरह उस तक आ पहुंचा था।
अब वह मुन्नी नहीं मुन्नी मोबाइल बन गई थी।पूरी फैक्ट्री के लोग उसे इसी नाम से जानने और पुकारने लगे ।उसे पता लग गया था कि सपनों का यूं पूरा हो जाना कभी कभी उस मिलावटी दूध की तरह होता है जिसमें उस पोखर की मरी हुई मछलियाँ भी चली आती हैं जहाँ से उसमें पानी मिलाया गया था.

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

संत वेलेंटाइन तुम्हारा स्वागत है !!!




संत वेलेंटाइन वक्त से पहले ही प्यार के बिंदास इजहार और पारिवारिक प्यार की लड़ाई लड़ते हुए तत्कालीन रोम के राजा के हाथों मारे गए l उनको मरे अरसा हुआ lवह चूंकि मर गए थे तो वो किसी की जिंदगी में प्यार की बहार ले कर आते भी तो कैसे l उस समय तक जो एक बार इस दुनिया से विदा हुआ वह कभी लौट कर नहीं आता था lकिसी किताब में रखे सूखे हुए फूलों की तरह याद बन कर या ऐसे वैसे कैसे भी l अलबत्ता तमाम शायर कवि और लेखक उसके आने की अफवाह जरूर फैलाये रहते थे lपर इन अफवाहों पर कोई कान नहीं देता था lवह समय ही कुछ ऐसा था तब तक अफवाहें केवल अफवाहें ही रहती थींl उनका सच के रूप में भूमंडलीकरण नहीं हो पाता था lहम तब तकनीकी रूप से इतने संपन्न कहाँ थे ? यह अलग बात थी लोग प्यार तब भी करते थे और उसका इज़हार करते हुए बड़े धीर गंभीर और सतर्क रहते थे l
मुझे यह बात आज भी कचोटती है कि हमारी उस उम्र में जब हमारे भीतर प्यार और उसके इजहार का जज्बा बलबलाता था तब संत वेलेंटाइन अपनी कब्र में पुरसुकून नींद में सो रहे थे l वह यदि तब आये होते तो बात ही कुछ और होती lहो सकता है कि हम अपनी जवानी के लम्हों को सलीके से जी लेते l लेकिन उन दिनों ऐसा कुछ था ही नहीं इसलिए हम हम ठीक से जवान हुए बिना यकायक ही बचपन से अधेडावस्था मे आ  गए l ऐसा केवल मेरे साथ ही नहीं हुआ ,चंद आवारा लौंडों ,शोहदों और बिगड़ैल खानदानी रहीसों के अलावा जवानी तब  किसी और के जीवन के आसपास भी नहीं फटकती थी l
लेकिन अब हालात बदल गए हैं l हर ऐरे -गैरे नत्थू- खैरे के पास जवानी आती है l वह चूंकि बड़े पुरलुत्फ अंदाज में आती है इसलिए उसकी स्थाई प्रदर्शनी निरंतर भिन्न –भिन्न रूपों में चलती ही रहती है lइस मोबइल नुमाइश को कस्बों शहरों महानगरों में सरेराह कभी भी देखा जा सकता है l सुना है कि अब तो संत वेलेंटाइन का पुनरागमन हो चुका है l वह अपनी ख्वाबगाह से निकल आये हैं l उन्हें बाजार ने अपना ब्रांड एम्बेसडर बना दिया है l हर साल वह बेनागा गिफ्ट बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सजी धजी दुकानों पर टेडी बेयर ,दिल के आकार वाले गुब्बारों ,निर्गंध फूलों के बुके ,हृदयाकार चाकलेटों ,पेस्ट्रीज ,च्विंगम ,लालीपाप और तरह तरह  के ग्रीटिंग कार्डों के जरिये हर उस शख्स तक ज़रूर पहुँचते हैं जो वास्तव में जवान (हाई स्कूल के सर्टिफिकेट के अनुसार ) या अपने युवा होने के विभ्रम को कामयाबी से ओढ़े होते हैं l काश ! हमारी जवानी आने के दिनों में ऐसा हो पाता l हम भी तो देखते कि जवान दिल  वास्तव में जब किसी के प्यार में धड़कता है तो कैसा होता है उसका अहसास   l हमारे पास तो जवानी के मामले में जो आधी अधूरी जानकारी है वह हमें नीले पीले लुगदी साहित्य या उस लिटरेचर के जरिये मिली हुई है ,जिसे लोग तब भी और आज भी बड़ा उबाऊ लेकिन अपनी सांस्कृतिक धरोहर मानते हैं lप्यार के इजहार का व्यवाहरिक फलसफा तो मैं कभी सीख ही नहीं पाया l
मेरा तो मानना है कि हमारे समय के लोग निहायत दकियानूस थे l उन्हें प्यार के सैद्धांतिक पक्ष का तो पता था l उसकी मीमांसा करना भी खूब आता था lथियोरी में हमारी प्रतिभा असंदिग्ध थी पर प्रेक्टिकल में मामला शून्य से ऊपर कभी नहीं गया lसंत वेलेंटाईन ने अपने इस नए अवतार में आकर चमत्कार कर दिखाया है l वेलेंटाइन डे विरोधियों के लिए बुरी खबर यह है कि लाख पहरे बैठाने के बावजूद वह युवा दिलों में अपनी आमद ज़रूर दर्ज करेगा lवेलेंटाइन समर्थकों के लिए खुशखबरी यह है कि वेलेंटाइन के साथ अब अरबों खरबों का बाजार है ,उसके आगमन को रोक पाना किसी भी नैतिकतावादी के बूते की बात नहीं l
आओ ,संत वेलेंटाइन आओ ,स्वागत है तुम्हारा l यदि संभव हो तो उन निर्धनों ,दलितों ,शोषितों ,पीड़ितों की जिंदगी  और नफरत से बजबजाती  बस्तियों में भी आना जहाँ  सदियों से तुम्हारे आने का  इंतज़ार हो रहा है l