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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

एक सुबह हुआ करती थी




                     एक समय वह भी था ,जो  मेरी उम्र के साथ -साथ गुजर गया,जब मेरे शहर की हर सुबह पुरसुकून ,ठंडी , शांत और  खूबसूरत हुआ करती थीं |तब मेरा जिस्म थकना नहीं जानता था और बाग -बगीचों में उड़ती पीली तितलियां  इतनी जिद्दी थीं कि उनकी परवाज़ के आगे मेरे  शैतान बचपन की    नटखट उँगलियाँ शायद ही कभी जीत पाती  हों   ,जो उन्हें अपनी गिरफ्त में लेने को बेचैन रहती थीं |इसके बावजूद उन तितलियों से  कभी कोई शिकायत नहीं  हुई  ,न बार -बार हारते जाने को लेकर हिंसक कुढ़न ही पैदा हुई |वह तो बस एक  खेल था ,जिसमें हार -जीत और किसी से पिदने या किसी को पिदाने का कोई मसला ही नहीं था | तब नीले आसमान का अक्स नदियों और तालाबों के हौले हौले हिलते जल पर बिना किसी रोकटोक के उतर आता था और धूप की किरणों पर सवार सोनपरी बिना किसी यांत्रिकता के सही समय का पता दे जाती थी |यह वह समय था ,जब नींद किसी बच्चे के मुस्कान की तरह निर्दोष थी और सोना जागना किसी रसायन या अलार्म घड़ी का  मोहताज नहीं  था |
                     लेकिन अब ऐसा नहीं है | सुबह अपना  इन्द्रधनुषी लिबास मारधाड़ और आपाधापी से भरी  किसी ऐसी वार्डरोब में रख कर भूल गई  है,जिसका ताला इतना जंग खा चुका है कि किसी भी चाभी से अब खुलता ही नहीं |पर इसकी परवाह अतीत की कंदराओं में समय -असमय विचरण करने वाले चंद सिरफिरों के अलावा किसी को नहीं|अधिकांश के लिए तो सुबह रणक्षेत्र में उतरने का बुलावा देती उद्घोषणा के रूप होती है ,जिसकी इबारत लिखने के लिए रक्तिम रोशनाई की इज़ाद हुए अरसा हुआ |इस कुरुक्षेत्र में  अपने -पराये का भेद किये बिना खून के रंग से ही हमारी महत्वाकांक्षायें अभिव्यक्त हुआ करती   हैं |इस जद्दोजेहद में तमाम फर्जी जैकारों के बीच  हम लगातार हारते जा रहे हैं |मानना होगा कि त्रेता में आरम्भ हुई निरंतर पराजय के महाभारत में    पात्रों के नाम और चेहरे  बदले हैं ,शेष  कुछ  नहीं बदला |
                       हाल में हुए एक सर्वे ने भी बता दिया है कि हम एक चहुंओर  आशकाओं से घिरे देश के सर्वाधिक असुरक्षित शहर में जीने के लिए अभिशप्त हैं |दूसरे शब्दों में यह एक ऐसा शहर है जो सुपारी किलर्स ,खूंखार बलात्कारियों ,बेखौफ लुटेरों ,शातिर झपटमारों ,पारंगत उचक्कों, सायकोपैथ लोफरों ,विलियम स्लीमेन कालीन निष्णात ठगों की पसंदीदा आखेटस्थली है |यह एक ऐसा अभयारण्य है जहाँ हिंस्र और जन्मजात शिकारी पशुओं तक का जीवन   मनुष्य मुखौटाधारियों के सामने खतरे में पड़ सकता है |यहाँ की हवाओं में  हर गली कूंचे में खुली अपराध की फेक्ट्रियों का इतना जहरीला धुआँ मिला है कि यहाँ  की हर सुबह जब  अलार्म घड़ी के  कर्कशराग से अपने आगमन का पता देती है ,तब यहाँ का हर बच्चा ,युवा ,अधेड़ और बूढ़ा आसमान की इस उम्मीद से ताकता है कि वहाँ रहती कोई परालौकिक शक्ति शायद उन्हें जिन्दा रहने का एक और दिन बख्श दे|
                      मेरे शहर में सकुशल बने रहना किसी  चमत्कार से कम नहीं है इसलिए आप मुझे चाहे तो एक चमत्कारीपुरुष मान सकते हैं, जो मरने या मार दिए जाने की तमाम आशंकाओं  को  नकारता  इसलिए जिन्दा है क्योंकि उसे  अभी न जाने कितने शोकगीतों में हिस्सेदारी करनी है ,न जाने किस- किसके लिए आंसू बहाने हैं, न जाने खुद को सुरक्षित देख कर अपने बारे में कितनी गलतफहमियां पालनी हैं ,न जाने कितने भयातुर लोगों को दिलासा देना है ,न जाने कितने अपराधी सरगनाओं को मसीहा बता कर अपनी जिंदगी के कुछ और दिन उधार मांगने हैं ,न जाने अपने वीतराग में कितनी अतीतकालीन सुनहरी सुबहों की मनगढंत कथाओं को बांचकर भविष्य के रुपहले सपनों की  रचना करनी  है |मेरी तो ख्वाहिश यही है कि धरती पर अपने प्रवास के बाद  ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात  नक्षत्र की ओर जब मैं कूच करूं तो नेपथ्य में किसी उदास धुन की बजाय खुशनुमा जिंदगी का ऐसा नगमा बज उठे , जिसमें मेरे  गुज़रे समय की किसी हसीन सुबह का  सुमुधुर संगीत हो |

                

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपके शब्‍दों का सुमधुर संगीत 'शहर' के परिपेक्ष्‍य में निपुण बीतराग है। शानदार अभिव्‍यक्ति है। बधाई।

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  2. 'खुशनुमा जिंदगी का नगमा...'
    इस आलेख को पढ़ना सुमधुर जीवन संगीत सुनने जैसा ही था!

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  3. सिर्फ मेरठ ही नहीं सभी जगह का यह हाल है। कुछ ढोंगियों की वजह से उनकी थोथी थीसिस और कुछ अति-प्रगतिशील लोगों की एंटी थीसिस ने सच्चाई का गला घोंट रखा है। अहंकार और आपा-धापी के नशे मे सच्चाई को कोई जानना ही नहीं चाहता ,बताने वाले का उत्पीड़न किया जाता है उसके विरुद्ध लामबंदी की जाती है। सच्चाई को दबा कर सुख की कामना कैसे की जा सकती है?

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  4. धन्यवाद जोशीजी ,अनुपमाजी,विजय माथुर जी .आपकी हौंसलाफजाई के लिए आभारी हूँ .

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