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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अन्ना हम शर्मिन्दा हैं


अन्ना हम शर्मिन्दा हैं

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मुझे यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं कि मुझे राजनीति का ककहरा भी नहीं आता.खासतौर से  उस राजनीति का, जिसमें परदे के सामने कम परदे के पीछे अधिक ,खेल हुआ करते हैं.राजनीति को आज़ादी के महज़ 64 साल में किसने एक वीभत्स खेल बना दिया ,इसका पता तो सबको है .यकीन मानें अब राजनीति  वो खेल बन चुकी है ,जिसमे सिद्धांत शाब्दिक जुगाली और नैतिकता एक भद्दी -सी गली बन चुकी है .
रामलीला मैदान में पिछले एक सप्ताह से अनशन करता एक संत भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे मुल्क में उससे निजात की आस लगाये बैठा है.कितना भोला है यह अदना-सा आदमी उसे मालूम ही नहीं कि उसकी भूख का भी एक झुनझुना बना दिया गया है.वह भूखा है और सत्ता के गलियारों में उसकी इस भूख का तले हुए काजू खा- खा कर मखौल उड़ाया जा रहा है.सारे राजनेताओं के इस प्रहसन को सारा  देश  अनेक बार टेलीविजन पर  देख चुका है.हर राजनेता के पास भ्रष्टाचार से निजात पाने की एक अभिनव योजना है और उसी के पास भ्रष्टाचार को निर्बाध गति जारी रखने की तीव्र इच्छा शक्ति भी है.ज़ाहिर है योजनाएँ उस विषैले वनफूल का ऊपरी आवरण होती हैं जो बहुत आकर्षक और लुभावनी लगता  है पर वस्तुतः जीव जंतुओं को अपने भीतर ले जाकर उसे हज़म कर जाने का जरिया बनती हैं.हर कोई अपील कर रहा है कि अन्ना अपना अनशन खत्म करें.उनका जीवन देश के लिए बहुमूल्य है.इस अपील का एक निहितार्थ यह भी है कि आप कहाँ किस चक्कर में पड़ गए ,बहुत हो लिया खेल तमाशा ,काफी मिल गया आपको नेम फेम ,अब बस भी करो ,जाओ अपने गांव,खाओ पियो मौज करो,भजन कीर्तन करो,अपने नाते रिश्तेदारों मित्रों ,गांव वालों को इस अनशन के किस्से सुनाओ. अब तो  सूचना यह भी है कि अंततः देश का एक विजनरी नेता भी भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को निजात दिलाने के लिए गेम चेंजर प्लान ले कर आ गया है.उसने पूरे 11 दिन की मौन  साधना के बात इसे अविष्कृत किया है.यह विजनरी नेता जो कुछ भी करते हैं ,बहुत सावधानी और सोच विचार के किया करते हैं.
इस घात-प्रतिघात के खेल के बीच मेरे शहर का आम आदमी बहुत उदास है और बहुत व्यथित और बेचैन भी कि अन्ना सर्व व्याप्त जिस भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बाल हठ लिए उपवास पर हैं ,उसका समाधान इतना पेचीदा और ज़टिल है कि विद्वानों को एकमत होने योग्य कुछ भी ,लाख सद्प्रयासों के बाद भी मिल ही नहीं रहा है.इन मासूम लोगों को क्या पता कि जो एकमत एकराय हो जाएँ वो भेडें होती हैं ,जो जहाँ भी जाती हैं कतरी ही जाती हैं ,विद्वानों और मेंढकों को कभी किसी ने एक तराजू पर तुलते नहीं देखा.मेरे शहर में चाहे किसी भी चीज़ का कितना भी अभाव हो ,पर आरामकुर्सी पर बैठ कर चिंतन मनन और हर नुक्कड़ ,चाय के खोखों ,पान की दुकान पर बहस मुबाहिसा के ज़ुबानी कनकौए उड़ाने वालों की कतई कोई कमी नहीं है .ये लोग मोमबत्ती लेकर अन्ना के समर्थन में जब जुलूस में निकलते हैं ,तब भी इनका मन उन जुमलों की तलाश में रहता जिनसे वो अपनी विद्वता की अमिट छाप अपने प्रतिद्वंदी पर छोड़ सकें.ये कोई भी अवसर कभी नहीं गंवाते.किसी अखबार या इलेक्ट्रोनिक मीडिया का चमकता कैमरा इनकी भाव -भंगिमा को अत्यंत सतर्क और संजीदा कर देता है .यही मौका है जब नाम के साथ अपनी तस्वीर को भी रौशन किया जा सकता है.
अन्ना को शायद यह मालूम नहीं कि हमारे राजनेताओं को आम आदमी के ज़ज्बातों से खेलने का दीर्घकालिक अनुभव है .उनके लिए उनकी भूख कोई मुद्दा ही नहीं है .देश की  बड़ी आबादी भुखमरी के कगार पर जाने कबसे है ,जब वे उनकी चिंताओं या प्राथमिकताओं में कभी नहीं रही तब उनकी  भूख से निढाल हो चली काया का संज्ञान भला कौन लेगा .
अन्ना ,मैं विद्वान नहीं हूँ.मेरी कोई राजनीतिक महत्वकांक्षा भी नहीं है .देश के अधिसंख्य मध्यवर्गीय लोगों की तरह थोडा जिद्दी ,सनकी ,स्वप्नजीवी और भावुक ज़रूर हूँ.तुम अनशन पर हो तो इस बीच  अनेक पर्व आये और चले गए पर  मेरे  उत्सवधर्मी मन में न कोई कोयल कूकी ,न कोई मयूर पंख फैला कर नाचा ,न कंठ में किसी गीत की पंक्तियाँ नमूदार हुईं.तुम मंच पर बैठे हुंकार भरते रहे ,मुस्कराते रहे पर मुझे यही लगा कि मेरे घर का  कोई मेरा आत्मीयजन किसी बात पर मुझसे रूठ कर घर के बाहर चौपाल पर जा बैठा है और हंसी -हंसी में मुझे धिक्कार भी  रहा है और चिढा भी रहा है.अन्ना ! हमें तुम पर गर्व है और अपनी बेचारगी पर शर्मिंदगी भी.





 

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

सरकार -अन्ना का पन्द्रहदिनी टेस्ट मैच शुरू



इस मामले में मुझे कोई भ्रम नहीं है कि मैं अन्ना हजारे हूँ .मेरे पास अपने अन्ना होने का ऐलान करती न तो  कोई टोपी या टीशर्ट या फिर अंगवस्त्र ही है.मेरे पास अपने माँ -बाप का दिया एक अदद  साफ सुथरा शुद्ध स्वच्छ पारदर्शी नाम है ,जिसके जरिये लोग मुझे जानते और पहचानते हैं.उम्र के इस पड़ाव पर इस नाम को यदि बदलना भी चाहूं तो यह एक दुष्कर काम होगा.इसी नाम के साथ जीना और सभवतः मरना भी मेरी नियति है.शेक्सपियर ने पता नहीं क्या सोच कर कहा होगा कि नाम में क्या धरा है ,पर अनुभव बताता है कि आदमी के भूत भविष्य और वर्तमान में नाम की उपस्थिति अपरिहार्य रूप से रहती है.वह जब तक जीता है ,तब तक नाम उसके साथ चाहे -अनचाहे चिपका रहता है और मरने के बाद भी नाम जीते जी किये गए कृत्यों -दुष्कृत्यों के जरिये अपनी उपस्थिति को गाहे बगाहे दर्ज कराता रहता है.
सत्ता के गलियारों में पिछले तीन माह से अन्ना हजारे के नाम की आंधी चल रही है ,जिसकी धमक मेरा शहर भी पूरे देश के साथ महसूस कर रहा है .उनकी राष्ट्रीय पटल पर मौजूदगी यह अहसास जगाने में कामयाब है कि पड़ौसी घरों में बलिदानी संघर्षशील जुझारू लोगों ने जन्म लेना अभी बंद नहीं किया है.तमाशबीन मानसिकता खुद खेल से बाहर रह कर केवल ताली बजाने में ही आनंदित होती है.दूसरे के घर जन्मा भगत सिंह हमें गौरान्वित करता है और दैवयोग से अपने घर में यदि ऐसा कुछ हो जाये तो लगता है मानो अनर्थ हो गया हो.इसीलिए ही यह नारा गली -गली गूँज रहा है -अन्ना तुम संघर्ष करो ,हम तुम्हारे साथ है.अन्ना तुम अनशन करो ,जब तक संभव हो भूखे रहो,अपनी जान गवां सकते हो तो गँवा दो ,हम भरपेट अघाये हुए लोग तुम्हारे साथ हैं.जब तक तुम जियोगे जयकार करेंगे .यदि मरखप गए तब तुम्हारी समाधि पर फूल बरसाएंगे.इस काम में हमने न कभी कोई कोताही की है ,न कभी करेंगे.यही वह काम है ,जिसे हम बखूबी जानते हैं.सदियों को अभ्यास है हमें इस काम का.
अन्ना आमरण अनशन पर हैं .दिल्ली पुलिस ने  उन्हें अनशन के लिए रामलीला मैदान पन्द्रह दिन के लिए दे दिया है.दिल्ली पुलिस ने जो सदाशयता दिखाई है ,वह सराहनीय है.सरकारी सोच भी यही है कि अन्ना की पन्द्रह दिन की भूख आखिर किसी का क्या  बिगाड़ लेगी?सत्ता के अहंकार में आकंठ डूबे ,मोटे भत्ते पगार और कमीशन आदि को उदरस्थ कर  डकार पर डकार मारते लोगों से भूख से निढाल हो चुकाकुपोषण का शिकार एक शरीर आखिर कब तक लड़ेगा?एक बड़बोला नेता तो साफ़ -साफ़ कह चुका है -अन्ना भले आदमी हैं पर आत्महत्या पर क्यों उतारू हैं.
अन्ना देश से भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिए अभियान चलाये हैं और हमारा हर छोटा -बड़ा नेता उस जादुई छड़ी को ढूँढ रहा है,जिससे सांप भी मर जाये पर लाठी न टूटे.जिसके माध्यम से कुछ ऐसा हो सके कि भ्रष्टाचार भी निर्बाध गति से चलता रहे ,पर तमाम चिंतातुर आँखों के आगे ऐसी धुंध छा जाये कि वह देखने पर भी दिखाई न दे.लेकिन लाल किले के प्राचीर से जो अंतिम खबर आयी थी उसका सार यही था कि बहुत तलाशने पर भी वह जादुई छड़ी मिल नहीं पाई है.तलाश पूरे जोर शोर से जारी है.
फ़िलहाल सारी जाँच एजेंसियां आतंकवादियों की धरपकड जैसे दीगर काम छोड़ कर हर घर ,दफ्तर, गली ,कूंचे, नदी ,नाले, पोखर, तालाब, बाज़ार हाट ,बाग, बागीचे, झोपड़पट्टी, लोगों की जेबों, बच्चों के बस्तों, मंदिरों की  गुल्लकों ,भिखारियों के भिक्षा पात्रों में जादुई छड़ी को ढूँढने के सर्वोच्च  राष्ट्रीय महत्व के काम में लगी हैं.उनके समक्ष इस काम के साथ ये गुरुतर दायित्व भी है कि वे चौबीसों घंटे अन्ना पर इस बात के लिए निगाह रखें कि कोई अदृश्य विदेशी ताकत उन्हें चुपके से कुछ खिलाने न पाए.अब सरकार के पास दो विकल्प हैं या तो अन्ना का आमरण अनशन अपनी नियत अवधि के भीतर अपनी अंतिन परिणिति तक पहुँच जाये या फिर भ्रष्टाचार को धुंध से ढँक देने वाली जादुई छड़ी मिल जाये.
मैंने पहले ही कहा कि मैं अन्ना हजारे नहीं हूँ.मेरे नाम के साथ जुड़ा कोई आभामंडल या प्रभाव नहीं है.इस नाम के साथ कोई खतरा मौजूद नहीं है और तमाशबीन बने रहने की पूरी सुविधा भी है.सरकार और अन्ना के बीच पन्द्रहदिनी टेस्ट मैच जारी है.अपने नाम को बिना बदले या धारण किये इसे पूरे मनोयोग से देखते रहें.



सोमवार, 15 अगस्त 2011

इस पर भी गौर करें


जुमे का दिन था|आसमान में काले बादल  छाये थे|हवा एकदम ठहरी हुई थी|उमस के मारे बुरा हाल था|आज उसने अपना ठेला मस्जिद के पास लगाया था,जिस पर छोटे बड़े तिरंगे झंडे सजे थे|पन्द्रह अगस्त का दिन पास ही था|उसे यकीन था कि आज़ादी का जश्न तो सभी मनाएंगे इसलिए अच्छी दुकानदारी होगी|वह सुबह से ठेले पर अपनी दुकान सजाये खड़ा था ,पर कोई ग्राहक न आया था|वह मायूस था|सोच रहा था कि यदि जेब खाली रही तो रोज़ा इफ्तारी का सामान लेकर वह घर कैसे जा पायेगा|
आज़ादी मिले हमें ६४ साल हुए|पर सलीके से उसका जश्न मनाना न आया|तमाम धार्मिक पर्वों पर कहीं उत्साह ,उमंग या उल्लास की कोई कमी नहीं रहती|दीपावली हो या ईद;गुरु पूरब हो या क्रिसमस या  फिर होली  पूरे जोश से मनाये जाते हैं|राष्ट्रीय पर्व पर हमारा उत्साह कहाँ चला जाता है|
इस सवाल का जवाब ढूढने के लिए हमें अतीत की ओर लौटना होगा|जहाँ पूरे देश के साथ मेरठ भी असमंजस की स्थिति में खड़ा है|दंगे की विभीषिका को झेलता शहर यह सोच ही नहीं पा रहा कि आज़ादी की बहुप्रतीक्षित ख्वाहिश के पूरा होने पर क्या और कैसे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाये|विदेशी शासन के खिलाफ प्रथम क्रांति का उद्घोष करने वाला शहर  मुल्क के सीने पर जबरन खींच दी गई विभाजन की खूनी रेखा  के चलते गमजदा है |धार्मिक उन्माद चरम सीमा पर है |दोनों ओर से पलायन जारी है |मेरठ में विक्टोरिया पार्क के पास शरणार्थियों के शिविर स्थापित हैं |यह वही जगह है , जहाँ अभी कुछ माह पहले आज़ादी की लड़ाई की अगुआ रही कांग्रेस पार्टी का वार्षिक अधिवेशन हुआ था|अधिवेशन वाली इस जगह को तब प्यारे लाल शर्मा नगर का नाम दिया गया था|इस जगह को अब शर्मा नगर कहा जाता है|
कांग्रेस के इस अधिवेशन में इसके अध्यक्ष जे बी कृपलानी समेत अनेक बड़े नेता ,जिनमें महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू आदि शामिल थे, यहाँ आये थे|१९४६में ही  दंगे की दावानल की चपेट में ये शहर आ गया था|यही वज़ह थी कि इस अधिवेशन में देशभर से आये केवल १५० प्रतिनिधि ही शामिल हो पाए थे|
आज़ादी जब १४-१५अगस्त की आधी  रात को दबे पाँव मुल्क में दाखिल हुई तो १५ अगस्त की वो सुबह जब पूरे देश के साथ मेरठ ने भी उन्मुक्त सांस ली| तब थोडा सुकून तो महसूस हुआ पर फिजाओं में घुली साम्प्रदायिकता की जहरीली हवा की उपस्थिति से घुटन भी अनुभव हुई |
पर इस उत्सवप्रिय शहर ने समस्त आशंकाओं को दरकिनार कर जय हिंद का अपूर्व उद्घोष किया|सड़कों पर तिरंगा लहराता जन सैलाब उमड़ा|खूब मिठाईयां खाई और खिलाई गईं|हलवाईयों ने मुफ्त में सबका मुहँ मीठा कराया|पी |एल| शर्मा स्मारक मैदान और मेरठ कालेज के परिसर में विशाल जनसभाएं हुईं,जिनमें स्थानीय नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों की ओजस्वी तकरीरें हुईं|इन भाषणों में आने वाले कल की सुनहरी तस्वीर और बेशुमार सपने थे|
समय बीतता रहा|सपने टूटते गए|नेताओं के सुर बदले|उनका चाल ,चेहरा और चरित्र बदला|छदम स्वतंत्रता सेनानियों की फौज अपने त्याग का मुआवजा मांगती ऊँचे ओहदों की जुगाड में लग गई|वास्तविक देशभक्त हाशिए पर सरका दिए गए|पूरा देश कुव्यवस्था के अंधकूप में डूबने लगा |भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद को सामाजिक स्वीकार्य मिलने लगा|आज़ादी की वर्षगांठ आती -जाती रहीं|लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री के जोशीले भाषणों को पहले  रेडियो से कान लगा कर और अब दूरदर्शन के जरिये टकटकी लगाये बड़ी आस से निहारती एक पीढ़ी जवान हुई ,फिर बूढी हो चली|पर कहीं कोई बदलाव न आया|अमीर और अमीर होते गए ,गरीब का जीना मुहाल हो गया|केवल वादे और झूठे आश्वासन ही मिले|बेरोज़गारी बढ़ती गई|सरकारी योजनाओं का लाभ धरातल तक पहुँच ही नहीं पाया|
मस्जिद के पास खड़ा झंडे की दुकान लगाये  वो लड़का सोच रहा है कि इस धंधे के दिन तो खत्म हुए|अब किसी को राष्ट्रीय झंडे की दरकार नहीं|कल से वह अमरुद या खजूर का ठेला लगायेगा,कुछ तो खरीदेंगे रोजेदार|यदि कुछ बिना बिके बच भी  गए तो घर में रोज़ा इफ्तारी में ही काम आ जायेंगे|
लेकिन आज……….|अब वह क्या करे ?झंडे से तो रोज़ा इफ्तारी होने से रही| आज़ादी के जश्न के बाद  यदि अवसर मिले तो इस मसले पर ज़रूर गौर करें|
निर्मल गुप्त

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

एक पापकथा अंतहीन


लुगदी साहित्य के लिए विख्यात (या कुख्यात )इस शहर में अनेक ऐसे छदम् नाम (कुछ  स्वनामधन्य लेखक) हुए ,जिन्होंने तंत्र- मन्त्र ;जादू टोने को आधार बना कर समय -समय पर ग्रंथों की रचना की और नाम व दाम दोनों  अर्जित किये.लेकिन मैं जिस लोमहर्षक कथा को वर्क दर वर्क बांचने जा रहा हूँ उसमें रहस्य और रोमांच तो है पर वह दिलचस्प कतई नहीं है.ये धर्म या मज़हब की उन पेचीदा गलियों का पता देती है जो अतृप्त अभिलाषाओं की पूर्ति ,बिना श्रम के गंतव्य को पा लेने की बेहूदा जिद और निठल्लेपन को चमत्कार के जरिये महिमामंडित करने का शार्टकट  उपलब्ध कराने के लिए  अविष्कृत की गई हैं.यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि इन गलियों का धर्म या मज़हब के मूल मंतव्य से कुछ भी लेना -देना नहीं है.इसके बावजूद इन गलियों का निरंतर विस्तार पाता अस्तित्व इस बात की निशानदेही करता है कि हमने अब प्रतिकार करने की इच्छा शक्ति को गँवा  दिया है.हमने धर्म और उससे से जुड़े हर मसले को उनके स्वयंभू ठेकेदारों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है.वरना क्या वजह है कि हर गली कूंचे में तांत्रिक, जादू टोने के माहिर और तमाम  गुप्त विद्याओं के बाबा ,अर्ध्प्रभु ,प्रभु ,महाप्रभु ,सूफी ,नजूमी बकायदा अपनी दुकानें बिछाए बैठे हैं और उनके विरोध में उठता हुई  एक मद्धम -सी ध्वनि तक  सुनाई नहीं देती.
मैंने बताता चलूँ  कि यह कहानी जागृति विहार के एक मकान में हुई नरबली की भयावह घटना से शुरू होती है.इस कथित घटना में एक किशोर को नाहक ही अपने प्राण गवाने पड़े.इस कहानी में मृतक केवल एक आब्जेक्ट बना ,जिसे किसी निरीह उल्लू कछुए मुर्गे या बकरे की तरह इस्तेमाल किया गया.उस मासूम को इतनी दर्दनाक मौत इसलिए मिली कि एक तांत्रिक अनुष्ठान में नरबलि की ज़रूरत थी.उस अनुष्ठान के लिए जिससे किसी निसंतान को संतान उपलब्ध कराना ,किसी को धनपति को  धन कुबेर बनाना अथवा किसी की  सत्तासीन होने की अभिलाषा को पूर्ण करना अभीष्ट रहा होगा.इस नृशंस घटना के मुख्य किरदार उस तांत्रिक को क्या  इससे अकूत धन सम्पदा या उच्च सामाजिक मान प्रतिष्ठा वाला ओहदा या फिर धर्म के सत्तात्मक गलियारों में  अपूर्व आभा मंडल मिलने वाला था ?इस सवाल का जवाब नकारात्मक ही हो सकता है.तब उसने यह सब कर गुजरने के लिए खुद को क्यों और कैसे तैयार किया होगा?
इस तांत्रिक के बारे में जो अस्फुट जानकारियाँ उपलब्ध हो पा रही हैं उससे यही पता चलता है कि वह दो सामानांतर जीवन जी रहा था.एक जीवन था अघोरी या तांत्रिक का और दूसरा आधुनिक जीवन शैली वाले शहरी का.वह अघोरी  या  तांत्रिक था अपने व्यवसाय की खातिर.लंबे केश, खूब बढ़ी हुई दाढ़ी ,माथे पर लंबा तिलक उसे तांत्रिक के रूप में सामाजिक मान्यता देता था.निजी जीवन में जींस शर्ट और माथे से तिलक नदारद हो जाता था.वह बहरुपिया था और दो प्रकार के जीवन जीने की कला में माहिर.पर क्या वह ऐसा जन्मजात रहा होगा?इसका भी जवाब नकारात्मक ही हो सकता है.एक सभ्रांत परिवार में जन्मा शशिकांत गर्ग भी अन्य युवाओं की तरह ऊर्जा से परिपूर्ण युवक रहा होगा .इसने भी तब कुछ सपने देखे होंगे ,किसी से प्यार किया होगा ,किसी को चाहा होगा ,किसी को सराहा होगा तो किसी के द्वारा सराहा गया होगा ,इसके भी कुछ सपने आँखों में किरच -किरच कर टूटे होंगे ,कुछ साध अधूरी रह गईं होंगी ,किसी गंतव्य के लिए मार्ग अबूझ पहेली बन गया होगा,कुछ महत्वपूर्ण करने की कोशिश में सांस उखड़ गई होगी.संभावनाएं अनन्त हो सकती हैं.पर धर्म के मुख्य मार्ग से जब कोई भटकता है तो तंत्र, मन्त्र ,मरघट की साधना ,नशे की लत वाली अंतरांध गलियों में उनको सुकून मिला करता है.
शशिकांत के अतीत के बारे में जो सूचनाएं उपलब्ध है उससे यही पता चलता है कि पहले वह भक्ति मार्ग पर बढ़ा ,फिर त्रिकालदर्शी माया जाल में उलझा ,इसके बाद मरघटों में मिलने वाली कथित सिद्धियों की ओर आकर्षित हुआ और अंततः घर परिवार मित्र सबंधियों द्वारा तिरस्कृत हो कर तांत्रिक हाट का कुशल व्यवसायी बन गया.पर उसकी जद्दोजेहद जारी रही.वह अपने बनाये विभ्रम के जाल में उलझता गया.और तंत्र के नाम पर बहुप्रचारित फरेब का खुद शिकार बना जब उसने नरबलि देने का दुस्साहस किया.वह अभी फरार है .देर या सवेर उसका पकड़ा जाना तय है .तब कानून अपना काम करेगा.
हो सकता है शशिकांत को उसके जघन्य कृत्य के लिए फांसी दी जाये.पर क्या तब वास्तव में इस कहानी का पटाक्षेप हो जायेगा.?उस मासूम किशोर की मर्मान्तक चीखों और दर्दनाक मौत की एवज़ में ये सजा काफी होगी ?धर्म की आड़ में चल रहे तंत्र मन्त्र ,जादू टोने आदि इत्यादि और कर्मकांड के नाम चलते ढकोसलों को रोकने के लिए कोई पहल क्यों नहीं की जाती?हम किसका इंतज़ार कर रहे हैं?इन कुप्रथाओं से निजात दिलाने कोई ईश्वर इस धरती पर अवतार लेने वाला नहीं है.
इस कहानी का कोई अंत मेरे पास नहीं है.यह एक  अनंतहीन कथा है,जिसमें, आप मानें या न मानें, पूरे समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी हमेशा रहती  ह

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

हमारे पास इब्नबतूता है(हरिभूमि में प्रकाशित )


हमारे पास इब्नबतूता है

हमारे पास इब्नबतूता है
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तीन दशक पहले सलीम जावेद के लिखे इस एक संवाद ने कि मेरे पास माँ है ,सिनेमाघरों में खूब तालियाँ पिटवाई थी ,तब मेरी कम उम्र अक्ल में इस डायलाग का मर्म कतई नहीं आया था.तब मेरे पास भी एक अदद माँ वास्तव में हुआ करती थी.बात -बात पर डांटने -फटकारने वाली माँ ,पढाई में ध्यान लगाने की ताकीद करने वाली माँ .क्षण में क्रोध में धधकती ज्वाला और पलक झपकते ममत्व की ठंडी फुहार -सी माँ..मैं ही क्या मेरे तमाम सहपाठियों और मित्रों के पास भी अपनी -अपनी माँ थीं.जिससे वे सभी डरते भी थे ,किलसते भी थे ,चिढते भी थे ,प्यार भी करते थे.
हम लोगों ने स्कूल से भाग कर वह पिक्चर देखी थी -दीवार.जिसमें अमिताभ बच्चन ने अपने पुलिस अफसर भाई से कहा था -तुम्हारे पास क्या है .मेरे पास गाड़ी है ,बंगला है ,बैंक बैलेंस है .....जिसके जवाब में शशि कपूर ने कहा था -भाई मेरे पास माँ है.और इस डायलाग को सुनकर तालियों की गूँज उठी थी .लेकिन हम मन्दबुद्धि सोचते रहे थे कि जब एक भाई के पास माँ है तो इसमें इतना इतराने की क्या बात.
ये वो समय था जब दुनिया काफी सहज और सपाट थी.सूचनाएं काफी देर से आ पाती थीं.उम्र के लिहाज़ से जानकारियों का वितरण होता था.आज की तरह नहीं नवजात शिशु ने पालने से उतर कर अपने पावों पर चलना शुरू किया नहीं कि तुरंत ही जा पहुंचा वयस्कों की दुनिया में.हमें तो तब भी कुछ नहीं समझ आता था जब कोई अभिनेत्री बालों को बिखेरे रुंधे गले से यह कहती थी कि मैं तो अब किसी को मुह दिखाने के लायक नहीं रही.तब हम सोचते अच्छी खासी तो है जरा बाल संवार ले तो भला कौन इसका मुह देखना नहीं चाहेगा.
तीन दशक का समय कम नहीं होता .समय निर्बाध गति से बहता रहा.बाल बिखेरे घूमती अभिनेत्री के कथन का निहितार्थ समझ में आया.दो बेटों के बीच माँ की सत्ता का भावनात्मक गणित भी अबूझ पहेली न रहा .माँ वाला संवाद भी स्मृति से गायब या डिलिट होने की प्रक्रियाधीन था.तभी संगीतकार  ए.आर रहमान सिनेमा की दुनिया में किसी धूमकेतु की तरह प्रकट हुए और जय हो  -जय हो करते हुए आस्कर अवार्ड का गोल्डन ग्लोब ग्रहण करने  जब मंच पर पहुंचे तो उन्होंने कहा -मेरे पास माँ है.सभागार तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा.स्वदेशीजन तो उनके कहे का मतलब समझ गए लेकिन सभागार में उपस्थित हजारों वो अनाड़ी दर्शक जिन तक यह डायलाग अनुवाद के द्वारा पहुंचा घंटों तक सर खुजाते सोचते रहे कि क्या आस्कर अवार्ड के साथ माँ भी दी जाने लगी हैं.
ए.आर रहमान के मुह से निकल कर तीस दशक पुराना संवाद जिंदा हो उठा.इस बार गुलज़ार चूक गए.इधर -उधर से पढ़े -पढाये का चरबा बना कर अपने नाम के साथ उसका इस्तेमाल की कला भला उनसे बेहतर    कौन जनता है.पर हमारे  राजनीतिक रंगमंच पर गुलज़ार से अधिक प्रतिभाशाली जुगाड़ी मौजूद हैं.उन्होंने जुमलेबाज़ी में महारत हांसिल कर रखी है.पिछले दिनों जब सत्ता के तहखानों से एक एक करके भ्रष्टाचार के पाप  से लबालब भरे  घड़े निकलने शुरू हुए ,जिनके सामने पद्मनाभ मंदिर का सरमाया अपनी चमक खोता नज़र आने लगा और विपक्ष मुख्य भ्रष्टाचारी किरदारों और उनके आश्रयदाताओं के नाम गिनाने में संलिप्त हुआ तब .....एक आवाज़ आयी -हमारे पास मनमोहन ..... है .एकदम साफ शफ्फाक चरित्र .ईमानदार और बेदाग राजनेता.इतना बेदाग कि अनेक प्रसिद्ध साबुन निर्माताओं को अपना ताज डोलता लगे.आत्मविश्वास से दमकता चेहरा ,जिसके चेहरे पर हरदम खिली रहती है मुस्कान.तुम्हारे पास है क्या?  आरोप ,आरोप और खालिस आरोप हैं
इसके बादआया जनता का जवाब –हमारे पास इब्नबतूता है ,जिसका जूता पहनने पर करता है चुरर और हाथ में आये तो छुड़ा दे बड़ों बड़ों को पसीना.