एक थी मुन्नी।उसका
नाम जरूर मुन्नी था पर न तो वह बदनाम थी और न ही उसका झंडू बाम से कोई सम्बन्ध था।वैसे
तो वह इतनी मुन्नी थी भी नहीं।वह तो ठीकठाक शक्ल सूरत और अक्ल वाली युवती थी।वह
थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना जानती थी।उसके पास देखने के लिए कुछेक सपने थे जिन्हें वह
बार बार देखा करती थी।उन सपनों में से एक ऐसा सपना भी था जिसे देखने के लिए उसे
नींद की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई।वह एक अदद मोबाइल का सपना रात दिन देखा करती थी
जिससे वह मनचाहे गाने और फिल्म जब चाहे गुपचुप देख सुन सके।
वह एक गारमेंट
फैक्ट्री में तैयार कपड़ों को पैक करने का काम करती थी।इस फैक्ट्री में विदेशों को
निर्यात होने वाले कपड़े बनते थे।वह हफ्ते में छ: दिन सुबह आठ से पांच तक पैकिंग
का काम करती जिससे उसे आठ सौ रुपये की हर माह पगार मिलती।उसकी जिंदगी बिना किसी
रुकावट और खेद के साथ बीत रही थी।कभी –कभी कपड़ों को पैक करते हुए वह उन्हें देख कर मुग्ध हो जाती थी।वह
चारखाने वाली छोटी सी स्कर्ट देखती तो यह सोच कर शरमा जाती कि हाय दईया इसे कौन
कैसे पहन पाती होगी।कभी वह झीनी –सी फ्रॉक देखती तो लजा जाती।
मुन्नी भले ही कम
बढ़ी लिखी थी पर वह अपने आसपास की दुनिया और वहां के हालात को ठीक से जानते थी।उसे
ये विदेश जाने वाले कपड़े अच्छे तो लगते थे पर इतने भी अच्छे नहीं कि उन्हें
धारण कर पाने का कोई ख्वाब संजोती।मुन्नी की तो बस यही साध थी कि जैसे तैसे उसे एक
अदद मोबाइल मिल जाये।वह जानती थी कि यह उसे तभी मिल सकता है जब वह कम से कम बीस माह
तक सौ रुपये बचाए।उसे पता था कि यह काम इतना आसान नही है।उसने एक बार कोशिश की थी
पर वह अपनी बचत को कभी अपने स्मैकिये भाई की गिद्ध दृष्टि से बचा नहीं पाई।
फिर एक दिन
........वह उस दिन भी और दिनों की तरह फैक्ट्री में अपने काम में लगी थी|वहां गोदाम में भारी उमस थी।उसने अपनी बहुरंगी
सूती चुनरिया उतार कर पैक सामान के ऊपर रख दी थी।तभी फैक्ट्री में दो गोरे चिट्टे
मर्द और एक शफ्फाक मेम नमूदार हुए।उनके साथ फेक्ट्री मालिक चल रहा था और पीछे पीछे
खींसे निपोरता एक सुपरवाइजर। वे तैयार माल देखते आगे बढ़ रहे थे।तभी मेम उसके पास आकर ठिठकी।उसने
अंग्रेजी में फैक्ट्री मालिक से क्या कहा ,मुन्नी की समझ में कुछ नहीं आया।मेम उसकी चुनरिया को एकटक निहार रही
थी।तब फेक्ट्री मालिक की आवाज उसे सुनाई दी –मुन्नी चल अपना दुपट्टा ओढ़|यह मैडम तेरी तस्वीर उतारेंगी।वह झट से अपनी
चुनरिया ओढ़ कर खड़ी हो गई।मैडम ने उसकी अपने कैमरे से अनेक तस्वीर उतारी।फिर वह ‘वैरी नाईस - वैरी नाईस ‘ कहते हुए आगे बढ़ी।फिर उसे कुछ याद आया।उसने अपने बैग से निकाल कर एक चमकदार
काले रंग का मोबाइल उसकी ओर बढ़ा दिया।गिफ्ट .....इट इज फॉर यू।
मुन्नी उसे हाथ में
लिए हक्की बक्की से खड़ी रही।उसे यकीन नहीं हुआ था कि सपने ऐसे भी साकार हो
जाते हैं।उसने अपने मोबाइल में सिम डलवाया।कुछ गाने और फ़िल्में भी उसमें डलवा लिए।अब
उसके मोबाइल की घंटी जब -तब बज उठती थी ।कोई उसे बीमे कराने का लाभ बताता है तो
कोई उसे घटी दरों पर बैंकाक भेजने की बात करता ।शोहदे उससे उसकी एक रात की कीमत
पूछते । कोई उसे दोस्त बनाने
की बात करता ।लगभग सारा बाजार मोबाइल के सहारे किसी न किसी तरह उस तक आ
पहुंचा था।
अब वह मुन्नी नहीं
मुन्नी मोबाइल बन गई थी।पूरी फैक्ट्री के लोग उसे इसी नाम से जानने और पुकारने लगे
।उसे पता लग गया था कि सपनों का यूं पूरा हो जाना कभी कभी उस मिलावटी दूध की तरह होता है जिसमें उस
पोखर की मरी हुई मछलियाँ भी चली आती हैं जहाँ से उसमें पानी मिलाया गया था.
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