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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अन्ना हम शर्मिन्दा हैं


अन्ना हम शर्मिन्दा हैं

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मुझे यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं कि मुझे राजनीति का ककहरा भी नहीं आता.खासतौर से  उस राजनीति का, जिसमें परदे के सामने कम परदे के पीछे अधिक ,खेल हुआ करते हैं.राजनीति को आज़ादी के महज़ 64 साल में किसने एक वीभत्स खेल बना दिया ,इसका पता तो सबको है .यकीन मानें अब राजनीति  वो खेल बन चुकी है ,जिसमे सिद्धांत शाब्दिक जुगाली और नैतिकता एक भद्दी -सी गली बन चुकी है .
रामलीला मैदान में पिछले एक सप्ताह से अनशन करता एक संत भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे मुल्क में उससे निजात की आस लगाये बैठा है.कितना भोला है यह अदना-सा आदमी उसे मालूम ही नहीं कि उसकी भूख का भी एक झुनझुना बना दिया गया है.वह भूखा है और सत्ता के गलियारों में उसकी इस भूख का तले हुए काजू खा- खा कर मखौल उड़ाया जा रहा है.सारे राजनेताओं के इस प्रहसन को सारा  देश  अनेक बार टेलीविजन पर  देख चुका है.हर राजनेता के पास भ्रष्टाचार से निजात पाने की एक अभिनव योजना है और उसी के पास भ्रष्टाचार को निर्बाध गति जारी रखने की तीव्र इच्छा शक्ति भी है.ज़ाहिर है योजनाएँ उस विषैले वनफूल का ऊपरी आवरण होती हैं जो बहुत आकर्षक और लुभावनी लगता  है पर वस्तुतः जीव जंतुओं को अपने भीतर ले जाकर उसे हज़म कर जाने का जरिया बनती हैं.हर कोई अपील कर रहा है कि अन्ना अपना अनशन खत्म करें.उनका जीवन देश के लिए बहुमूल्य है.इस अपील का एक निहितार्थ यह भी है कि आप कहाँ किस चक्कर में पड़ गए ,बहुत हो लिया खेल तमाशा ,काफी मिल गया आपको नेम फेम ,अब बस भी करो ,जाओ अपने गांव,खाओ पियो मौज करो,भजन कीर्तन करो,अपने नाते रिश्तेदारों मित्रों ,गांव वालों को इस अनशन के किस्से सुनाओ. अब तो  सूचना यह भी है कि अंततः देश का एक विजनरी नेता भी भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को निजात दिलाने के लिए गेम चेंजर प्लान ले कर आ गया है.उसने पूरे 11 दिन की मौन  साधना के बात इसे अविष्कृत किया है.यह विजनरी नेता जो कुछ भी करते हैं ,बहुत सावधानी और सोच विचार के किया करते हैं.
इस घात-प्रतिघात के खेल के बीच मेरे शहर का आम आदमी बहुत उदास है और बहुत व्यथित और बेचैन भी कि अन्ना सर्व व्याप्त जिस भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बाल हठ लिए उपवास पर हैं ,उसका समाधान इतना पेचीदा और ज़टिल है कि विद्वानों को एकमत होने योग्य कुछ भी ,लाख सद्प्रयासों के बाद भी मिल ही नहीं रहा है.इन मासूम लोगों को क्या पता कि जो एकमत एकराय हो जाएँ वो भेडें होती हैं ,जो जहाँ भी जाती हैं कतरी ही जाती हैं ,विद्वानों और मेंढकों को कभी किसी ने एक तराजू पर तुलते नहीं देखा.मेरे शहर में चाहे किसी भी चीज़ का कितना भी अभाव हो ,पर आरामकुर्सी पर बैठ कर चिंतन मनन और हर नुक्कड़ ,चाय के खोखों ,पान की दुकान पर बहस मुबाहिसा के ज़ुबानी कनकौए उड़ाने वालों की कतई कोई कमी नहीं है .ये लोग मोमबत्ती लेकर अन्ना के समर्थन में जब जुलूस में निकलते हैं ,तब भी इनका मन उन जुमलों की तलाश में रहता जिनसे वो अपनी विद्वता की अमिट छाप अपने प्रतिद्वंदी पर छोड़ सकें.ये कोई भी अवसर कभी नहीं गंवाते.किसी अखबार या इलेक्ट्रोनिक मीडिया का चमकता कैमरा इनकी भाव -भंगिमा को अत्यंत सतर्क और संजीदा कर देता है .यही मौका है जब नाम के साथ अपनी तस्वीर को भी रौशन किया जा सकता है.
अन्ना को शायद यह मालूम नहीं कि हमारे राजनेताओं को आम आदमी के ज़ज्बातों से खेलने का दीर्घकालिक अनुभव है .उनके लिए उनकी भूख कोई मुद्दा ही नहीं है .देश की  बड़ी आबादी भुखमरी के कगार पर जाने कबसे है ,जब वे उनकी चिंताओं या प्राथमिकताओं में कभी नहीं रही तब उनकी  भूख से निढाल हो चली काया का संज्ञान भला कौन लेगा .
अन्ना ,मैं विद्वान नहीं हूँ.मेरी कोई राजनीतिक महत्वकांक्षा भी नहीं है .देश के अधिसंख्य मध्यवर्गीय लोगों की तरह थोडा जिद्दी ,सनकी ,स्वप्नजीवी और भावुक ज़रूर हूँ.तुम अनशन पर हो तो इस बीच  अनेक पर्व आये और चले गए पर  मेरे  उत्सवधर्मी मन में न कोई कोयल कूकी ,न कोई मयूर पंख फैला कर नाचा ,न कंठ में किसी गीत की पंक्तियाँ नमूदार हुईं.तुम मंच पर बैठे हुंकार भरते रहे ,मुस्कराते रहे पर मुझे यही लगा कि मेरे घर का  कोई मेरा आत्मीयजन किसी बात पर मुझसे रूठ कर घर के बाहर चौपाल पर जा बैठा है और हंसी -हंसी में मुझे धिक्कार भी  रहा है और चिढा भी रहा है.अन्ना ! हमें तुम पर गर्व है और अपनी बेचारगी पर शर्मिंदगी भी.





 

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