हमारे पास इब्नबतूता है
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तीन दशक पहले सलीम जावेद के लिखे इस एक संवाद ने कि मेरे पास माँ है ,सिनेमाघरों में खूब तालियाँ पिटवाई थी ,तब मेरी कम उम्र अक्ल में इस डायलाग का मर्म कतई नहीं आया था.तब मेरे पास भी एक अदद माँ वास्तव में हुआ करती थी.बात -बात पर डांटने -फटकारने वाली माँ ,पढाई में ध्यान लगाने की ताकीद करने वाली माँ .क्षण में क्रोध में धधकती ज्वाला और पलक झपकते ममत्व की ठंडी फुहार -सी माँ..मैं ही क्या मेरे तमाम सहपाठियों और मित्रों के पास भी अपनी -अपनी माँ थीं.जिससे वे सभी डरते भी थे ,किलसते भी थे ,चिढते भी थे ,प्यार भी करते थे.
हम लोगों ने स्कूल से भाग कर वह पिक्चर देखी थी -दीवार.जिसमें अमिताभ बच्चन ने अपने पुलिस अफसर भाई से कहा था -तुम्हारे पास क्या है .मेरे पास गाड़ी है ,बंगला है ,बैंक बैलेंस है .....जिसके जवाब में शशि कपूर ने कहा था -भाई मेरे पास माँ है.और इस डायलाग को सुनकर तालियों की गूँज उठी थी .लेकिन हम मन्दबुद्धि सोचते रहे थे कि जब एक भाई के पास माँ है तो इसमें इतना इतराने की क्या बात.
ये वो समय था जब दुनिया काफी सहज और सपाट थी.सूचनाएं काफी देर से आ पाती थीं.उम्र के लिहाज़ से जानकारियों का वितरण होता था.आज की तरह नहीं नवजात शिशु ने पालने से उतर कर अपने पावों पर चलना शुरू किया नहीं कि तुरंत ही जा पहुंचा वयस्कों की दुनिया में.हमें तो तब भी कुछ नहीं समझ आता था जब कोई अभिनेत्री बालों को बिखेरे रुंधे गले से यह कहती थी कि मैं तो अब किसी को मुह दिखाने के लायक नहीं रही.तब हम सोचते अच्छी खासी तो है जरा बाल संवार ले तो भला कौन इसका मुह देखना नहीं चाहेगा.
तीन दशक का समय कम नहीं होता .समय निर्बाध गति से बहता रहा.बाल बिखेरे घूमती अभिनेत्री के कथन का निहितार्थ समझ में आया.दो बेटों के बीच माँ की सत्ता का भावनात्मक गणित भी अबूझ पहेली न रहा .माँ वाला संवाद भी स्मृति से गायब या डिलिट होने की प्रक्रियाधीन था.तभी संगीतकार ए.आर रहमान सिनेमा की दुनिया में किसी धूमकेतु की तरह प्रकट हुए और जय हो -जय हो करते हुए आस्कर अवार्ड का गोल्डन ग्लोब ग्रहण करने जब मंच पर पहुंचे तो उन्होंने कहा -मेरे पास माँ है.सभागार तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा.स्वदेशीजन तो उनके कहे का मतलब समझ गए लेकिन सभागार में उपस्थित हजारों वो अनाड़ी दर्शक जिन तक यह डायलाग अनुवाद के द्वारा पहुंचा घंटों तक सर खुजाते सोचते रहे कि क्या आस्कर अवार्ड के साथ माँ भी दी जाने लगी हैं.
ए.आर रहमान के मुह से निकल कर तीस दशक पुराना संवाद जिंदा हो उठा.इस बार गुलज़ार चूक गए.इधर -उधर से पढ़े -पढाये का चरबा बना कर अपने नाम के साथ उसका इस्तेमाल की कला भला उनसे बेहतर कौन जनता है.पर हमारे राजनीतिक रंगमंच पर गुलज़ार से अधिक प्रतिभाशाली जुगाड़ी मौजूद हैं.उन्होंने जुमलेबाज़ी में महारत हांसिल कर रखी है.पिछले दिनों जब सत्ता के तहखानों से एक एक करके भ्रष्टाचार के पाप से लबालब भरे घड़े निकलने शुरू हुए ,जिनके सामने पद्मनाभ मंदिर का सरमाया अपनी चमक खोता नज़र आने लगा और विपक्ष मुख्य भ्रष्टाचारी किरदारों और उनके आश्रयदाताओं के नाम गिनाने में संलिप्त हुआ तब .....एक आवाज़ आयी -हमारे पास मनमोहन ..... है .एकदम साफ शफ्फाक चरित्र .ईमानदार और बेदाग राजनेता.इतना बेदाग कि अनेक प्रसिद्ध साबुन निर्माताओं को अपना ताज डोलता लगे.आत्मविश्वास से दमकता चेहरा ,जिसके चेहरे पर हरदम खिली रहती है मुस्कान.तुम्हारे पास है क्या? आरोप ,आरोप और खालिस आरोप हैं
इसके बादआया जनता का जवाब –हमारे पास इब्नबतूता है ,जिसका जूता पहनने पर करता है चुरर और हाथ में आये तो छुड़ा दे बड़ों बड़ों को पसीना.
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