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सोमवार, 19 दिसंबर 2011

साहित्यिक अवदान की दुखद गाथा



                     मेरे शहर में किस्से बहुत हैं |यहाँ के चप्पे -चप्पे पर अनेक कहानियों  की इबारत  दर्ज हैं पर इन कहनियों को सलीके से दर्ज कर सकने वाले कहानीकारों का नितांत अभाव है |यह भी ताज्जुब की बात है कि मौखिक परम्परा की किस्सागोई की कला यहाँ खूब फल -फूल रही है |आपको यहाँ की हर गली मोहल्ले में एकाधिक ऐसे किस्सागो ज़रूर मिल जायेंगे ,जिनके पास सुनाने लायक किस्सों का भंडार हमेशा रहता है |ऐसे किस्सागोओं के पास उत्सुक श्रोताओं की कभी कोई कमी नहीं रहती |हालाँकि लेखकों के सामने पाठकों की कमी का बहाना हमेशा रहता है | ऐसे यशस्वी लेखकों का पसंदीदा जुमला है -लिख कर क्या करें ,आजकल कहानी -किस्से पढ़ता कौन है | मेरा मानना है कि इन सुनामधन्य लेखकों पर यह पुरानी कहावत चरितार्थ होती है ,नाच न जानें आँगन टेढ़ा|हो सकता है कि इस शहर का आँगन वास्तव में टेढ़ा हो |इस सबके बावजूद शहर में  इतनी  सारी कविताजीवी संस्थाओं और कवियों की उपस्थिति तो यही इंगित करती है कि आँगन की वास्तु का कवि मन पर कोई असर नहीं पड़ता |हालात चाहे हों ,जिनको रचना है काव्यमय संसार अपने लिए वो अपने काम में पूरे मनोयोग से लगे हैं |यह अलग बात है कि उनकी कविताओं और गीतों  में  वर्तमान अपनी उपस्थिति इतनी ही दर्ज करवा पाया है ,जितनी जगह अख़बारों में चमत्कारिक बाबा ,तिलस्मी अंगूठी के ज़रिये भविष्य सुधार की हुंकार भरने वाले कारोबारी ,सेक्स सम्बन्धी दुर्बलता का पलक झपकते निदान करने वाले स्वयंभू डाक्टर और एक से बढ़कर एक वैवाहिक रिश्ते उपलब्ध कराने वाली दुकानों के मालिक वर्गीकृत विज्ञापनों को छपवा कर पाते हैं |इनकी काव्य रचनाओं में रीतिकालीन नायक, नायिकाएँ ,उनकी भावभंगिमा ,रानिवासों में लगातार चलते षडयंत्र और भांडों चाटुकारों और मसखरों का आख्यान इस तरह उपस्थित रहता है ,जैसे रीतिकालीन समय के बाद कालचक्र का पहियां थम गया हो| श्रमजीवी कामगार ,मजदूर, किसान और  समाज के अंतिम पायदान पर ठगा -सा खड़ा दलित शोषित इनके एजेंडे भी है ही नहीं |बाल लाल गाल के मोहपाश में उलझे ये प्रतिभावान कवि और गीतकार अपने -अपने स्वप्निल संसार में बिना किसी अपराधबोध के  जी और मर रहे हैं|
                      यह सवाल अनुत्तरित है कि मेरे शहर में अकूत रचनाधर्मिता की संभावनाओं के बावजूद कहानीकारों  का पैदा होना क्यों बंद हो गये  ? राष्ट्रीय स्तर पर कविता के मर जाने की घोषणा और अब तक लिखी अधिकांश कविताओं को हिंद महासागर में शीघ्रातिशीघ्र प्रवाहित कर देने के मशविरे के बावजूद कवियों की जनसँख्या में बढ़ोत्तरी क्यों दर्ज  हो रही है ?इन सवालों का सीधा -सा जवाब मेरे पास है |मेरे शहर में अब केवल वही गतिविधि चला करती है ,जिसके साथ किसी ऐसे  व्यापार की संभावना मौजूद हो ,जिसमें मुनाफे का कोई समीकरण चलता है |लेकिन  ऐसा अनायास नहीं हुआ |इसके कारणों की पड़ताल के लिए हमें साठ-सत्तर के दशक में वापस लौटना होगा |यह वह समय था जब मेरठ लुगदी साहित्य की एक बड़ी मंडी बना |तब गद्य लेखन के जरिये  धनार्जन के उस राजमार्ग पर मेरे शहर के तमाम कहानीकार रातोंरात सन्निकट सम्पन्नता की चाह में चल पड़े |उन दिनों अपनी लिखी कहानियों की पोथियाँ कांख में दबाए कहानीकारों का हुजूम ईश्वरपुरी और हरिनगर में दिन भर दिखाई दिया करते  थे |उनमें से कुछ अपने नाम को ब्रांड बनाकर धनार्जन में कामयाब हुए ,कुछ नाम छद्मनाम होकर संतुष्ट हो लिए  और कुछ सार्थक लिखने के चक्कर में गुमनाम रह गए |फिर हुआ यह कि बुद्धुबक्से ने लुगदी साहित्य को लील लिया|पर लुगदी साहित्य की मंडी में एकबार जो गया वो चला ही गया ,उनमें से किसी को मुख्यमार्ग पर  वापस आते किसी ने अभी तक  नहीं देखा |
                        मेरे शहर के कवि सौभाग्यवश ऐसी किसी मोहभंग की प्रक्रिया से नहीं गुज़रे |उनके लिए कवि सम्मेलन नामधारी मंडी में  अपनी पैठ बना पाने की संभावना मौजूद रही |कवियों  के आठ -आठ ;दस -दस के समूह एक -एक अदद संस्था बना कर उसके जरिये जनता की मांग के अनुरूप कविताएँ लिख कर उनके सस्वर पाठ का रियाज़ करते जोड़ जुगाड़ के माध्यम से कविसम्मेलनी बुलावे की आस में दिन बिताते जीते रहे ||ये कवि आज भी ऐसे ही मुगालतों के साथ जिंदा हैं |और देखिए…….उम्र के चढ़ाव के साथ मुगालते जवां होते जा रहे हैं |किसी ने चीख को अपनी कविता को आधार बनाया , तो किसी ने अपनी अधनंगी कामनाओं को शाब्दिक लिबास पहनाकर गीत रचे ,किसी ने किशोरावस्था में किसी से हुए एकपक्षीय प्रेम की खातिर लिखे प्रेमपत्रों को कविता का नाम दिया  ,किसी की यह जिद रही कि चुटकुलों को हाँस्य कविता माना जाये |पर हुआ कुछ भी  नहीं और इनमें से  अधिकांश की जिंदगी ट्रेजडी की  अकथ गाथा बन कर रह गई |
                       मेरा कहना तो यह है कि मेरे शहर के साहित्यिक अवदान की इस  दुखांत गाथा का अधिकांश भाग अभी तक अनकहा ही है |मेरा नम्र निवेदन है किअकादमिक हलकों के लोग और   शोधार्थी अपनी ऊब से बाहर  आयें और इसे अपने शोध का विषय बनायें |
                        

2 टिप्‍पणियां:

  1. निर्मल जी, संकेतों में बहुत कुछ कह गए आप। लेकिन क्या करें। अपना शहर इस मामले में निष्ठुर हो गया है। तमाम लोगों ने बहुत काम किए, लेकिन उनको कोई याद नहीं करता। भारत जी मेरे नगर, प्यारे नगर, मेरठ नगर, प्यारे नगर कहते-कहते चले गए लेकिन उनको विदा करने पहुंचे कितने? प्रशासनिक अधिकारियों के पास तो समय नहीं था, लेकिन सुनामधन्य कितने लोग पहुंचे। यहां रचनाधर्मिता जीवन्त नहीं रहती। कहानी हो या कविता...सबका भविष्य या कहिए अस्तित्व एक सा ही है।

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  2. सूर्यकांत जी ,हालात तो यही हैं .हमने वर्दी वाला गुंडा और चीख राग को अपना आदर्श क्यों मान लिया ?इसका खामियाजा तो भुगतना ही होगा .

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