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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सब्जियों के गहने और कैटवॉक


यह तो अक्सर होता है कि हम कहना कुछ चाहते हैं पर हमारा कहा हुआ श्रोता के कान तक पहुँच कर जब प्रतिध्वनित होता है तो हम हैरत में पड़ जाते हैं कि क्या हमने वास्तव में यही कहना चाहा था |इसी ध्वनि -प्रतिध्वनि के खेल से हमेशा विवाद ,प्रतिविवाद और गरमागरम बहस का सूत्रपात होता रहा है |इस खेल में हम कभी चाहे -अनचाहे सूत्रधार बनते हैं और कभी रेखागणित की किसी प्रमेय के इति सिद्धम का बरसों पुराना प्रलाप करते नमूदार होते हैं |इसका थोडा -बहुत अनुभव हमें अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में कमोबेश होता ही रहता है |पर इस बात को देश की राजनीति में थप्पड़पुरुष के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कर चुके से बेहतर भला कौन जानता है |वह जब -जब महगांई का दंश झेल रही जनता को यह बताते हैं कि अमुक वस्तु के दाम बढ़ेंगे  तो उनकी भविष्यवाणी सत्य हो जाती है और आम आदमी समझता है कि इनका  महंगाई बढ़ाने वालों से कोई व्यापारिक अनुबंध है |जनता नाराज हो जाती है |यह उनका दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि उनके बार -बार यह कहने के बावजूद कि वह ज्योतिषी नहीं हैं ,उनका कहा प्राय:  सच हो जाता है |
                   अब देखिये न ,मेरे शहर की एक संस्था ने महिलाओं को  सब्जियों से निर्मित गहने पहनवा कर कैट वॉक करवाई |संस्था का मंतव्य भी यकीनन बहुत मासूम रहा होगा ,पर मेरे संवेदनशील कानों को उनके इस आयोजन से उठ रहा  यही प्रतिध्वनित सन्देश सुनाई दे रहा है कि शीघ्र ही सब्जियां के दाम सोने की ऊँचाई प्राप्त करेंगे और  सब्जियां  मंडी में नहीं सर्राफा बाज़ार में बिका करेंगी |इनके भावों में कभी पचास  रुपये प्रति दस ग्राम  की गिरावट दर्ज होगी तो हम खुश हो लिया  करेंगे और एक हज़ार रुपये प्रति दस ग्राम का उछाला आया  तो  बेचैन |तब हम सब्जी खायेंगे नहीं (हम ऐसा कर भी कैसे सकते हैं ),उन्हें बैंक लाकरों में सहेज कर रखेंगे|वे महिलाएं जो अभी उन्हें पहन कर मंच पर कटी पतंग की तरह  बलखाती चल रही हैं ,तब वे वास्तव में भीगी  बिल्ली की तरह सब्जियों के गहने पहन कर झपटमारों की निगाह से खुद को बचाती हुई  निकला  करेंगी |तब होगी उनकी वॉक वास्तविक कैट वॉक |
                   ताज़ा सब्जियों की  हरितिमा और उनके प्राकर्तिक रंग सभी को लुभाते हैं |ठेले पर सजा  हरा भरा पालक ,सरसों और बथुआ  ,सफ़ेद मूली और दूधिया गोभी, लाल -लाल टमाटर और चुकंदर किसे नहीं रिझाते  ,पर  अभी तक इनकी औकात   किसी गरीब की जोरू जैसी ही हैं ,जिन्हें कोई भी  अपनी भौजाई पुकार सकता है |इनके साथ अभी तक केवल   अभिजात्य वर्ग के लिए आरक्षित का कोई तमगा नहीं लगा है ,इसलिए ये सर्वसुलभ हैं |इससे भी बड़ी बात यह कि अधिकांश सब्जियों के साथ अभी तक  कोई ऐसा चिकित्सिकीय फ़तवा नहीं जुड़ा है कि समाज का भरपेट अघाया हुआ तबका अपने धनबल के चलते इनपर कब्ज़ा कर ले |मसलन जबसे यह पता चला  कि जामुन के फल का सेवन शुगर के मरीजों के लिए मुफीद होता है ,तब  से इस  बेचारे  जामुन को धनपशुओं ने पूर्णत: अपनी कैद में ले लिया |अब यह आमआदमी की पहुँच से बाहर हो कर अमीरों की प्लेटों में ही पसरता देखा गया है |हालाँकि बाद में तमाम आयुर्वेदाचार्य चिल्लाते रह गए कि जामुन का समूचा फल नहीं, उसकी गुठलियाँ से बना चूर्ण ही शुगर के रोग में लाभदायक माना गया है|पर ये बात किसी ने नहीं सुनी |वैसे भी यह तबका अपने कानों पर कम जीभ पर अधिक भरोसा करता है |
                   सब्जियों के गहने पहन कर महिलाओं की कैटवॉक ने तो मुझे डरा दिया है|अंधविश्वासों में घोर अनास्था के बावजूद बिल्लियों का सामूहिक रूदन हो या उनकी अवांछित  आवाजाही भय का संचार  करते हैं |धुआं उठ रहा है बस्ती में ,आग कहीं न कहीं होगी ही |ये कहीं  किसी अनामंत्रित आपदा के आगमन की प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर ) तो नहीं ?
                  
               

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