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शनिवार, 7 जनवरी 2012

ए सुबह और बता तेरा इरादा क्या है !


              कुहासे में लिपटी सुबह से मैं और मेरा शहर आजकल जब यह पूछते हैं  कि कहो कैसी हो तो उसका जवाब होता है ,ठीक तुम्हारी तरह हूँ ,एक कतरा धूप के लिए बेचैन |उसका यह उत्तर सुनकर शहर मायूस हो जाता है और कुछ देर यहाँ -वहाँ जल रहे अलावों पर हाथ सेंकने के बाद अपने रोज़मर्रा के काम पर बढ़ लेता है |उसके पास मौसम के सर्द मिजाज़ से सीधे आँख मिलाने का तो फुरसत है और आवश्यक साहस |दो जून रोटी के जुगाड़ की अनसुलझी गुत्थी को अपने काँधे पर लादे यह शहर अनमना-सा  ही सही चलता रहता है ,अपनी महत्वकांक्षाओं और अश्लील सपनों को निरंतर स्थगित करता हुआ |
           मौसम बदलते रहते हैं और उसी के साथ सुबह के मिजाज़ के रंग और रूप  भी  |अभी तक इस शहर में कोई ऐसी रात नहीं आई ,जिसकी सुबह हुई हो | मैंने इस शहर की सुबह  को अनेक रंग रूप में देखा और जिया है |ऐसे भी मौके आये जब मैंने  किसी मनहूस  रक्तरंजित रात के बाद सुबह को अत्यंत विचलित होने के बावजूद मातमपुर्सी के लिए इस आशावाद के साथ के तत्पर खड़ा देखा है कि जो हुआ सो हुआ ,पर अब ऐसा कभी नहीं होगा |यह अलग बात है कि यह  आशावाद हमेशा अल्पायु ही रहा है |इस शहर के बाशिंदों को चाहे अनचाहे  यही दोहराना पड़ता  है सुबह होती है शाम होती है
                                 जिंदगी यूंही तमाम होती है |
          हालात चाहे जो हों ,इस शहर में बिना गहरे आशावाद के जिंदा रह पाना मुश्किल ही नहीं ,नामुमकिन है (डान फिल्म के एक प्रसिद्ध संवाद से साभार )|एक बार निराशा और हताशा का जिसने  दामन थामा  तो उसे अंततः किसी पागलखाने की चारदीवारी में  शरण मिल पाई  या आत्महत्या के किसी उपकरण के जरिये ही मुक्ति नसीब हुई| अलबत्ता बेशर्म लोगों के लिए इस शहर में कभी  कोई खतरा नहीं रहा  |मेरा कहना यह है कि इस शहर के चरित्र की पुख्ता निशानदेही इस शेर से ही संभव है |भविष्य में कभी अपने शहर के गुणगान की ज़रूरत पेश आये तो इस अशआर को बीजमंत्र मानकर थोड़ी हेरफेर के साथ उपयुक्त गीत रचा जा सकता है |हाल ही में हुई एक ऐसी प्रतियोगिता में जो गीत चुने गए उनमें तमाम मेधावी गीतकार रेवड़ी गज्ज्क आदि की मिठास की शान में कसीदे काढ़ते दिखाई दिए |उनके लिखे गीतों से तो यही लगा मानों मेरा पूरा शहर या तो  हलवाई का कोई विशालकाय शोरूम हो या औघड़नाथ नामक वह मंदिर जिसके साथ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चंद झूठी सच्ची  यादें बावस्ता हैं |इन गीतों से यही प्रतिध्वनित होता है कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले हमारे पूर्वजों ने संग्राम के बाद एक बार जो हथियार रखे ,इसके बाद यह शहर भविष्य की प्रत्येक संभावना को नकार कर  मिठाई बनाने ,बनवाने ,खिलाने और खिलवाने में ही लगा रहा |
            मौसम की थोड़ी सी तल्ख़ मिज़ाजी हमें परेशान कर देती है क्योंकि उससे हमारा रिश्ता आज भी मालिक और दास का है |मौसम हमारे लिए एक क्रूर राजा है और हम उसकी भय से कंपकपाती रिआया |गरीबी में घिरी अधिसंख्य जनता के पास तो इस बेमुर्रव्व्त जाड़े से निजात पाने को वस्त्र हैं , सर छुपाने को उचित छत , मौसमनुकूल भोजन और हाथ तापने और शरीर को गर्म रखने के लिए अलाव जलाने के साधन |कुछ लोगों के लिए यह सर्दी बतकही के लिए अवकाश ले कर अवश्य उपस्थित होता है  |शहर का एक तबका ऐसा भी है जो रात के अँधेरे में कुछ फटे पुराने गर्म कपड़े और कम्बल लेकर सुपात्र भिखारियों की खोज में निकलता है और अगले दिन सभी को अपने मिथकीय दानवीर कर्ण होने की गाथा इस टिप्पणी के साथ बताया करते हैं कि इस शहर में अब कोई ऐसा गरीब नहीं है ,जिसके पास ओढ़ने को गर्म कम्बल और पहनने को गर्म कपड़े हों |
          मेरे शहर में सुबह तीन  तरह के सन्देश ले कर उपस्थित हुआ करती है |कुछ के लिए रेनी- डे की तर्ज़ पर मुहमांगी मुराद सरीखी  स्कूलों के अवकाश की खुशखबरी के साथ |कुछ के लिए रूमहीटर के पास बैठ कर  हाथ तापते हुए ठण्ड से मरे लोगों की संख्या को लेकर बहस का सामान लेकर और अधिकांश के लिए एक और दिन जिंदा बचे रहने का सुकून लेकर |
            मैंने तय किया है कि यदि हालात सुधरे तो  मेरा शहर पूछे या पूछे पर मैं  कल कुहासे में लिपटी सुबह से यह ज़रूर पूछूँगा सुबह ,और  बता तेरा इरादा क्या है ?मेरे लिए यह सवाल पूछना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि मुझे दूसरों के सपनों को ईंधन बनाकर अपने लिए अलाव जलाने की  कला फ़िलहाल तो नहीं आती |

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