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शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

प्यार की जंग में

                                       प्यार की इस जंग में
                                                                                  
               प्यार और जंग में सब जायज़ होता है -यह एक पुराना मुहावरा है |इस मुहावरे से घोर असहमति के बावजूद हम इसे बार -बार दुहराने के लिए विवश हैं |इसकी वज़ह यह है कि हम चाह कर भी प्यार की स्वायत्त सत्ता के लिए इस धरती पर स्थान खोज पाने में असमर्थ हैं | केवल इतना ही नहीं प्यार और जंग जैसे विपरीतार्थी शब्दों के मध्य खिंची सीमा रेखा ही अब विलुप्त होती जा रही है |प्यार की दुनिया में  जंग के उपकरणों का उपयोग अब एक ऐसा सामजिक यथार्थ है ,जिससे नकार पाना संभव नहीं |पिछले कुछ अरसे से खाप पंचायतें अपनी बर्बर न्याय प्रणाली के माध्यम से यही स्पष्ट सन्देश देने की  पुरजोर कोशिश कर रही हैं कि इक्कीसवीं शताब्दी में भी वह  मध्ययुगीन सोच बरक़रार है जो प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति को सुचारू  सामाजिक व्यवस्था  के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती है| प्यार की मौखिक और शाब्दिक अभिव्यक्ति पर हमारे समाज को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उसकी चरम परिणिति तभी स्वीकार्य है जब वह समाज द्वारा स्थापित उन मूलभूत मानकों के अनुरूप हों , जो धर्म ,जाति,उपजाति,आर्थिक हैसियत और गोत्र आदि पर आधारित  हैं |इन मानकों का अतिक्रमण करने वालों के लिए  तो बिना किसी उचित सुनवाई ,दलील या बहस के मौत का सुस्पष्ट प्रावधान है |घर ,परिवार और समाज के गौरव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए यदि दो चार सिर फिरे आशिकों की गर्दनों को उनके प्रकृतिप्रदत्त स्थानों से काट कर अलग भी करना पड़े तो इससे कोई परहेज़ क्यों करे |मतिविहीन प्रेमियों के रक्त से ही तो सामजिक ढांचा मज़बूत होता है |मिथकीय प्रेमकथाओं के रक्तरंजित  दुखांत से हम अपने समाज को युगों युगों से महिमा मंडित करते रहे हैं |
           मेरे शहर में इश्क कुछ  युवाओं(कुछ अधेड़ों के लिए भी ) के लिए फुलटाइम शगल है |वे अपने हाथों में फर्जी भावनाओं के ऐसे  जाल लिए घूमते हैं जिसमें यदि कोई मछली एक बार फंसी तो उसका मसालेदार व्यंजन बन कर दिलचस्प किस्सों ,उत्तेज़क एमएमएस और वीडियो क्लिप के रूप में यहाँ वहाँ सशुल्क /निशुल्क वितरित होना तय होता  है |कुछ लोगों के लिए ये प्यार मोहब्बत किसी निठल्ले के लिए वक्तकटी का समुचित उपाय है ,तो अनेक  के लिए नीरस जिंदगी में रंग भरने का फौरी जरिया और अधिसंख्य  के लिए बिना दान दहेज ,सामाजिक स्वीकार्य और दूल्हा या दुल्हन बनने के लिए ज़रूरी आहर्ता के बिना सुख सम्पन्नता से लबरेज जीवन को पाने का एक सुगम शार्टकट|यह अलग बात है कि अनेक महत्वाकांक्षी लड़कियां इसी शार्टकट को ढूँढती हुई ,बदनामी ,बेकसी और नैराश्य की बंद गलियों में जा पहुँचती हैं ,जहाँ बहुत  खटखटाने के बावजूद कभी कोई दरवाज़ा नहीं खुला करता |प्यार के इस हाट में कभी- कभी लड़के भी  ठग लिए जाते हैं और वे जब शहर की सड़कों पर जब किसी राँझा की तरह यह गाते हुए निकलते हैं कि ये दुनिया ,ये महफ़िल मेरे काम की नहीं, तो खुदाईखिदमदगार उन्हें किसी निकटस्थ पागलखाने का पता बताने में कोई विलम्ब नहीं करते |
           मेरे शहर ने अब प्यार और जंग में हर नाजायज़ को  जायज़ ठहराने वाले मुहावरे में एक संशोधन प्रस्तुत किया है |अब प्यार और जंग में जायज़ और नाजायज़ का कोई सवाल ही नहीं रहा है ,यह तो अब एक ऐसा विशुद्ध  कारोबार है जिसमें अन्य धंधों की तरह केवल मुनाफे का अर्थशास्त्र ही मान्य है |नैतिक -अनैतिक ,पाप -पुण्य,सच -झूठ जैसे शब्दों को  काराबोरी दुनिया से बहिष्कृत हुए अरसा हो चुका है |इस बात को जिसने जितनी जल्दी समझ लिया ,वही कामयाब हुआ |कुछ ऐसे  मूढमति लोग इस हकीकत से आँख चुराते रहे,वे असफलता की ऐसी अँधेरी दुनिया में गर्क हुए कि अब उनका अतापता इतिहास की दीमक खाई किताबों में भी मिलना मुश्किल है |प्यार हो या  युद्ध ,पराजितों का लेखा जोखा रखने की कोई परम्परा कभी नहीं रही |इतिहास के पन्नों में जयकारे ही दर्ज हुआ करते हैं |
           अब तो सूचना यह है कि प्यार अब काराबोरी होने के बाद  कुछ और कदम आगे  बढ़ाने के लिए आतुर है |प्यार अब धीरे -धीरे एक ऐसा  धर्मयुद्ध के नृशंस दरवाज़े तक पहुँच चुका है ,जहाँ मध्ययुगीन जीवन मूल्यों के साथ मुठभेड़ निश्चित है |यदि ऐसा हुआ तो प्यार और कारोबार की न केवल सारी परिभाषाएँ ही सिरे से खारिज होंगीं वरन तमाम प्रेमगीत भी अचानक युद्धघोष में तब्दील हो जायेंगे |तब यह जीवन कितना और कैसे जीने लायक रह पायेगा ,यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है ,जिसका उत्तर तो फ़िलहाल किसी के पास नहीं है |
          प्यार की इस जंग का परिणाम  मानवता की यकीनन पराजय में ही हो सकता है |

निर्मल गुप्त  

           
          

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

एक अप्रवासी बहन के नाम पत्र


एक अप्रवासी बहन के नाम पत्र
......................................
सात समन्‍दरों की
मिथकीय दूरी को लांघ
एक नाजुक से धागे का
या चावल के चंद दानों
और रोली का
बरस-दर-बरस
मुझ तक निरापद चला आना
हैरतअंगेज है!

खून से लबरेज
बारूद की गंध को
नथुनों में भरे
इस सशंकित सहमी दुनिया में
तेरे नेह का
यथावत बने रहना
हैरतअंगेज है!

दो संस्‍कृतियों की
सनातन टकराहट के बीच
सूचना क्रांति के शोरोगुल
और निजत्‍व के बाजार में
मारक प्रतिस्‍पर्धा के बावजूद
मानवीय संबंधों की उष्‍मा की
अभिव्‍यक्ति का
सदियों पुराना दकियानूसी तरीका
अभी तक कामयाब है
हैरतअंगेज है!

तमाम अवरोध हैं फिर भी
कुछ है जो बचा रहता है
किसी पहाड़ी नदी पर बने
काठ के पुल की तरह
जिस पर से होकर
युग गुजर गए निर्बाध
भावनाओं की आवाजाही की तकनीक
अबूझ पहेली है अब तक
हैरतअंगेज है!

मेरी बहन;
कोई कहे कुछ भी तेरे स्‍नेह-सिक्‍त
चावल के दानों से
प्रवाहित होती स्‍नेह की बयार का
तेरे भेजे नाजुक से धागे
के जरिए
मेरे मन के अतल गहराइयों में
तिलक बन कर सज जाना
बरस-दर-बरस
कम से कम मेरे लिए
कतई हैरतअंगेज नहीं है

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

दीपावली शुभ हो !

अजब मिज़ाज-ए-बगावत है, हम चरागों में,
किसी के हुक्म पे चलना हमें कबूल नहीं 
हवा के जुल्म से बुझना कबूल है हमको ,
हवा के हुक्म से जलना हमें कबूल नही.

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

उपहारों का व्यापारिक यथार्थ

                 मुझे नहीं मालूम कि मेरे शहर में कितने लोग प्रत्येक दीपावली पर मिलने वाली शुभकामनाओं का लेखा जोखा उनके साथ  प्राप्त होने वाले उपहार की कीमत के क्रम में रखते हैं |लेकिन मैं इस बात को यकीन के साथ कह सकता हूँ कि मैंने कभी शुभकामनाओं की कोई बैलेंसशीट नहीं बनाई |इसका एकमात्र कारण यह रहा कि कभी भी मैं उपहार प्राप्त करने के लिए इतनी सामाजिक राजनीतिक या आर्थिक हैसियत ही  नहीं जुटा पाया कि इसके लिए मुझे  सुपात्र समझा जाता |खालिस शुभकामनाओं की मेरे पास कभी कोई कमी नहीं रही और सच तो यह है कि बिना किसी पर्व के रोज़मर्रा की जिंदगी में भी मेरी जेब में शुभकामनायें ही शुभकामनायें ठूंस -ठूंस के भरी रहती है |प्राय: देखा भी यह गया है जो जेबें करेंसी नोटों से रीती रहती हैं, उनमें उत्साह, उमंग और उल्लास  के भावप्रवण  खाते का ऐसा डेबिटकार्ड  हमेशा विद्यमान रहता है जिसे आपरेट करने के लिए किसी कूटसंख्या (कोड नम्बर )की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती |यह तो ऐसा खुला खज़ाना है ,जिसकी जितनी सामर्थ्य लूट ले जाये बेखौफ |
              मुझे यह बात भी अच्छी तरह से मालूम है कि भौतिकता से जगमगाती इस दुनिया में मेरे इस डेबिटकार्ड का बाज़ार मूल्य कुछ भी नहीं |यहाँ तो वही चलता है जो चमकता है |यह चमक कितनी कृत्रिम है या कितनी खरी ,इस पर सवाल उठाना निरर्थक है |चमक सिर्फ चमक होती है ,उसका औचित्य  या उद्गम ढूँढने की कोशिश बेकार है |यदि अवसर मिले तो इस बार दीपमालिका के पर्व पर गौर कीजियेगा  कि काले धन से खरीदी  गयी आतिशबाजी अमावस्या की अँधेरी रात को कितने नयनाभिराम पेस्टल रंगों से देखते ही देखते भर देती है |इसी धन से खरीदी गयी मिठाई मुहँ में स्वाद की कैसी -कैसी नई परिभाषा गढ़ देती है |ऐसे  धन से लिए गए  उपहारों के साथ आकर्षक शब्दों में लिपट कर जो भावनाएँ यहाँ से वहाँ तक की व्यापारिक  यात्रा तय करती हैं ,वे बड़ी कारगर हुआ करती हैं |उत्सव पर उपहार वही ,जो पाने वाले  दिल जीत ले|तमाम तरह के  ठेकेदारों से लेकर सत्ता के गलियारों के कीमियागारों तक को उपहार के अमोघ अस्त्र के इस्तेमाल की गहन जानकारी है |
              हमारे प्रधान मंत्री हाल ही में जब विदेश यात्रा से स्वदेश लौट रहे थे तो उन्होंने धरती पर अपने पांव टिकाने से पहले ही एक  बयान देश की जनता को दिया -दीपावली पर किसी को कोई उपहार न दें |पूरे जोशोखरोश के साथ खुशियाँ मनाएं पर -नो गिफ्ट प्लीज़ |उनकी यह मशविरा जिनके लिए है वे अब तक इतने उपहार जबरन एकत्र कर चुके हैं कि उनकी दस बीस पीढ़ियों को अब किसी उपहार की ज़रूरत भी नहीं पड़ने वाली .|उन्हें तो बस तिहाड़ से बाहर आकर काले धन के स्वर्णिम अण्डों को अपने धवल पंखों के नीचे छुपा कर   सेने के लिए निरापद स्थान , खाए हुए को ठीक से पचाने के लिए  चहलकदमी कर पाने के लिए पर्याप्त  स्पेस , हृदय रोग,किडनी रोग, लीवर की व्याधि आदि के इलाज  लिए कुछ  निष्णात किन्तु निशुल्क  चिकित्सक़  ,सांस लेने के लिए खुली हवा और जीवाणुरहित पानी   चाहिए  |वैसे भी प्रधानमंत्री ने  कोई नई बात नहीं की है |मुझे याद है लगभग तीन दशक पूर्व भी  एक ऐसा समय आया था जब विवाह ,बर्थडे या अन्य आयोजनों के आमंत्रण पत्रों पर लिखा जाता था कि कृपया अपने साथ उपहार न लायें |उस समय लोगों ने इसका यही मतलब समझा था कि वस्तुतः यह उपहार लाने में कोताही न बरतने या उसे विस्मृत न  करने का  आग्रह है |निमंत्रण पत्रों पर यह इबारत छपती रही और लोग बकायदा उपहार लाते रहे |न देने वाले को कोई झिझक हुई और न लेने वाले  का मन मलीन हुआ |बाद में पता नहीं कब यह इबारत गायब हो गयी और उसकी जगह किसी तुतलाते बच्चे का उसके  चाचा या बुआ की शादी में "जलूल जलूल" आने  का इसरार छपने लगा |ये परिपाटी आज तक कायम है |कुछ दूरदर्शी लोग तभी समझ गए थे कि कैश से कारगर कुछ नहीं ,जिसे न लेता भूले, न देता विस्मृत करे |
              शुभकामनाओं के इस कारोबारी समय में आप चाहें तो मेरी लिखी इन बातों को एक थके- हारे निराश आदमी की भड़ास मान कर सरलता से दरकिनार कर सकते हैं लेकिन यदि आप का मन ही  कभी आपसे ऐसे   सवालों को पूछने लगा तब क्या करेंगे ?
              आप सभी  अज्ञान, अहंकार, अशिक्षा ,भ्रष्टाचार ,साम्प्रदायिकता, जातीय विद्वेष और अँधेरे के खिलाफ कुछ  दियों के एकाकी युद्ध  के मात्र साक्षी नहीं सक्रिय भागीदार बनें|यही कामना है |जब आपके हाथ उपहार देने- लेने के दायित्व से मुक्त हो जाएँ तब दीपावली के पर्व पर  मेरी हार्दिक  शुभकामनाएँ स्वीकार कर लीजियेगा | 
निर्मल गुप्त            

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

दीपावली ;एक सार्थक पहल की ज़रूरत


                    कविवर नीरज की ये पंक्तियाँ दीपावली पर अक्सर बरबस याद आ जाती हैं -
                                  जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
                                  अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
यह एक संवेदनशील कवि का आशावाद है और अनेक ऐसे लोगों की भावनाओं की अभिव्यक्ति भी,जो पर्व के नाम पर होने वाले तमाम धूम -धड़ाके ,समृद्धि और सम्पन्त्ता के अश्लील प्रदर्शन के मध्य भी अपनी विवेकशीलता को बरकरार रखने में कामयाब हैं .प्रत्येक वर्ष दीवाली आती है तो उसके आगमन की नियत तिथि से पूर्व ही बाज़ार अपने आखेटक अस्त्रों के साथ आ धमकता है .तब बत्तीस रुपये पचास पैसे की सरकारी परिभाषा के अंकगणित से  बेखबर दरिद्र अपने मन की अतल गहरियों में जलती किसी आस की लौ को ज़बरन बुझा दिए जाने के वीभत्स खेल का वायदा माफ गवाह बनता है . दीप प्रज्वलन के इस पर्व पर यदि  बरस दर बरस निराशा की परछाइयों का कद निरंतर विस्तार पाता दिखाई देता है तो ऐसे में अनेक चुभते हुए ऐसे सवालों का उठना वाजिब है जिनके  समुचित उत्तर ढूंढे बिना हर आस निरर्थक है  .शुभकामनाओं का कोई अर्थ नहीं होगा .कोई भी वैज्ञानिक उपकरण अंधकार को मिटा पाने के अपने प्रयास में असफल ही रहेगा .
                 रोटी कपड़ा और मकान की मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं से लेकर शिक्षा रोज़गार और अपरिहार्य चिकित्सीय सुविधाओं तक पर समाज के एक ऐसे तबके का नियंत्रण है जो देश की अधिसंख्य आबादी को अपनी स्वार्थपूर्ति के कारखाने को संचालित करने वाला पुर्जा भर मानते हैं  .करोड़ों लोग के भविष्य ऐसे चंद लोगों की गिरफ्त में हैं ,जिनके रक्त सने  हाथों में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता है और जो समाज के स्वयम्भू नियामक बने बैठे हैं .भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लोगों के लिए तो दीपों का यह पर्व अपने कालिमापूर्ण ऐश्वर्य के सार्वजानिक प्रदर्शन का ऐसा अवसर लेकर उपस्थित होता ,जिसे वे कभी अपने हाथ से नहीं निकलने देते .ये लोग तो अपनी जगमगाती दुकानों पर बैठ कर अँधेरे बाँटने का ऐसा व्यवसाय करते हैं जो देखने वालों को हतप्रभ कर देता है .क्या काले धन को सामाजिक स्वीकार्य और प्रशस्ति  दिलाने वाला यह सालाना जलसा हमारी सकुंचित धार्मिक सोच को उजागर नहीं करता है?
                  धरती के जिस भू भाग पर अमावस्या होगी वहाँ तो अंधकार के साम्राज्य का होना तय है ,लेकिन उस अंधकार का क्या ,जिसके आधिपत्य को चुनौती देना वाला ही कोई नहीं .अब  कुछ लोग जो अपने हाथों में जलती हुई सत्य की अग्नि से रौशन दिए और  मोमबत्तियाँ लेकर  अत्याधुनिक हथियारों से लैस घटाटोप अंधकार के खिलाफ मोर्चे पर आ डटे हैं ,वे ही इस धरा से अंधकार को मिटा पाने की धूमिल सी ही सही ,पर आस तो हैं
                   नृशंस हवाओं के खिलाफ दियों के इस निर्णायक युद्ध में महज़ सहानभुति के कुछ शब्दों ,शुभकामनाओं के निस्तेज औजारों और दीगर सांकेतिक उपकर्मों से कुछ नहीं होने वाला ,इसके लिए तो  सक्रिय भागीदारी की दरकार है .आओ , अन्याय, अत्याचार ,पक्षपात छूआछूत ,भ्रष्टाचार, असमानता,जातिवाद , साम्प्रदायिकता और अशिक्षा के खिलाफ अपनी मशालें रौशन  करें और दीपवाली के पर्व को एक सार्थक पहचान दें .
निर्मल गुप्त
           
               

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

उत्सवी माहौल में अँधेरा


यह उत्सवों का मौसम है|धूप का पैनापन कम हो रहा है |ठण्ड की मद्धम -सी पदचाप को रातों में सुना जा सकता है |दिन में अभी भी गर्मी अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए संघर्षरत है |निजी संबंधों में आ रहे निरंतर ठंडेपन के बावजूद प्रकृति अभी भी यथासम्भव गर्माहट बनाए रखने की अपनी हठ पर उसी तरह कायम है जैसे घर का कोई बुजुर्ग अपनी उम्र को नज़रंदाज़ करता हुआ बीते हुए सुनहरे पलों को बारबार जीने की जिद करे |सच तो यह है कि समय तो बहता पानी है ,जो एक बार जहाँ से होकर  गुज़र गया  तो वहाँ लौट कर कभी नहीं आता |हमेशा नूतन और आद्यतन बना रहना ही जीवन है |
           नवरात्र और दशहरे के बाद पर्वों का एक सिलसिला शुरू हो जाता है |नवरात्र से पहले श्राध होते हैं ,जब हम अपनी समझ ,धार्मिक बाध्यता और परम्परा के अनुसार अपने दिवंगत पूर्वजों को स्मरण करने का काम करते हैं |पितरों की अतृप्त आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए हम क्या -क्या नहीं करते |खूब पूड़ी –कचौरी, साग- भाजी ,देसी घी का हलुआ बनता है ,जिसे सब खाते खिलाते हैं |इन दिनों तला -पका न खाने की चिकित्सकों की हिदायतें भी अपनी अर्थवत्ता खो बैठती हैं |किसी अपने प्रियजन को याद करने का इससे अधिक उत्सवी तरीका और क्या हो सकता है भला | इस प्रक्रिया में हमारे दिवंगत पूर्वज कितने संतृप्त हो पाते हैं ,इसका पता किसी को नहीं क्योंकि मृत्यु उपरांत के बाद के जीवन का  अतापता मालूम करने के लिए मरना ज़रूरी शर्त है |अतिउत्साही सत्यान्वेषी भी इसी शर्त के आगे हमेशा  परास्त होते रहे हैं |बहरहाल ,ऐसे ही सांकेतिक प्रदर्शनों से ही हमारा इहलोक समृद्ध और परलोक निरापद और सुरक्षित बनता है ,यही हमारी सनातन सोच और धर्म की अवधारणा है |ऐसे में कुछ  सवाल तो प्राय: निरुतरित ही रह जाते  हैं  कि अपने जीवित बुजुर्गों के प्रति हमारी सदभावना ,प्रेम और श्रृद्धा की इस   उर्वरा भूमि  पर अब नागफनी ही क्यों उगाई जाती हैं ?वानप्रस्थ आश्रमों ,वृद्धाश्रमों और ओल्डएज होम के मुख्य द्वारों पर लटकते  हाउसफुल के बोर्ड हमें लज्जित क्यों नहीं करते ?

अभी नवरात्र आये थे |हमने सुख ,समृधि ,निरोगी काया प्रदाती शक्ति की अजस्र स्रोत माओं को पूर्ण भक्ति भाव से नमन किया |ऐसा हम जाने कबसे बरस दर बरस करते आ रहे हैं |इन देवियों को ,जिन्हें हम माँ कह कर पुकारते हैं ,प्रसन्न करने के लिए नियम सयंम और विधि विधान से उपवास भी रखते हैं |इन उपवासों के पीछे मान्यता संभवतः यही रहा करती है कि कोई माँ अपने भूखे बच्चे को जब भूखा देखेगी तो अपने सामर्थ्य भर उसकी क्षुदा पूर्ति की व्यवस्था अवश्य करेगी |माँ का तो दिल ही ऐसा होता है जो खुद  भूखी रह कर भी बच्चे के मुख में अपने हिस्से का   निवाला भी रख  देती है |कृपया दिल पर हाथ रख कर बताएं कि इन नवरात्रों में आपको उन माओं  की भी कभी याद आई जो अपनी सन्तिति द्वारा उपेक्षित और सताई हुई हैं और जिन्हें मरने के लिए बिना पर्याप्त भोजन ,चिकित्सा और देखरेख के उनके अपने  घरों की किसी अँधेरी, उमस और सीलन से भरी कोठरियों में मच्छरों ,तिलचट्टों और चूहों के सानिध्य में डाल दिया गया है ?आप चाहें तो इस सवाल के जवाब में कोई नायाब तर्क अथवा झूठ गढ़ सकते हैं |पर ध्यान रहे ,तर्कशास्त्र की लाखों पोथियों से निकला हुई  कोई भी दलील एक दिन आपको उसी कोठरी की ओर ले जाने वाला रास्ता बाधित नहीं कर सकती ,जिसमें  आपकी बीमार बूढी माँ की पीड़ा का एक -एक दस्तावेज़ संरक्षित है  |इतिहास अपने को पूरी बर्बरता के साथ ऐसे ही दोहराता है |
            दशहरा आया और हमने दशानन के पुतले को अग्नि के हवाले करके मान लिया कि सत्य पर असत्य की जीत मुकम्मल हुई |अहंकार पराजित हुआ ,अनीति भस्म हो गई |क्या ऐसा हो पाया ?हम कब तक असत्य ,अहंकार और अनीति के रावणों के वध और उसके दहन के सालाना उपक्रम के मूक दर्शक बने रहेंगे ?एक बार पूरी ईमानदारी से अपने भीतर झांक कर देखें ,तो हो सकता है असली रावण और  उसका राक्षसी  साम्रज्य वहीँ कहीं आबाद मिले |इस उत्सवी माहौल में दीप प्रज्वलित करते हुए ,यदि अवसर मिले तो एकाध दिया अपने मन के उन अँधेरे आलों में रख आना ,जहाँ  वास्तव में निर्लज्ज आडम्बर से परिपूर्ण  बहुत अँधेरा है |

निर्मल गुप्त








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