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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

दीपावली ;एक सार्थक पहल की ज़रूरत


                    कविवर नीरज की ये पंक्तियाँ दीपावली पर अक्सर बरबस याद आ जाती हैं -
                                  जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
                                  अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
यह एक संवेदनशील कवि का आशावाद है और अनेक ऐसे लोगों की भावनाओं की अभिव्यक्ति भी,जो पर्व के नाम पर होने वाले तमाम धूम -धड़ाके ,समृद्धि और सम्पन्त्ता के अश्लील प्रदर्शन के मध्य भी अपनी विवेकशीलता को बरकरार रखने में कामयाब हैं .प्रत्येक वर्ष दीवाली आती है तो उसके आगमन की नियत तिथि से पूर्व ही बाज़ार अपने आखेटक अस्त्रों के साथ आ धमकता है .तब बत्तीस रुपये पचास पैसे की सरकारी परिभाषा के अंकगणित से  बेखबर दरिद्र अपने मन की अतल गहरियों में जलती किसी आस की लौ को ज़बरन बुझा दिए जाने के वीभत्स खेल का वायदा माफ गवाह बनता है . दीप प्रज्वलन के इस पर्व पर यदि  बरस दर बरस निराशा की परछाइयों का कद निरंतर विस्तार पाता दिखाई देता है तो ऐसे में अनेक चुभते हुए ऐसे सवालों का उठना वाजिब है जिनके  समुचित उत्तर ढूंढे बिना हर आस निरर्थक है  .शुभकामनाओं का कोई अर्थ नहीं होगा .कोई भी वैज्ञानिक उपकरण अंधकार को मिटा पाने के अपने प्रयास में असफल ही रहेगा .
                 रोटी कपड़ा और मकान की मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं से लेकर शिक्षा रोज़गार और अपरिहार्य चिकित्सीय सुविधाओं तक पर समाज के एक ऐसे तबके का नियंत्रण है जो देश की अधिसंख्य आबादी को अपनी स्वार्थपूर्ति के कारखाने को संचालित करने वाला पुर्जा भर मानते हैं  .करोड़ों लोग के भविष्य ऐसे चंद लोगों की गिरफ्त में हैं ,जिनके रक्त सने  हाथों में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता है और जो समाज के स्वयम्भू नियामक बने बैठे हैं .भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लोगों के लिए तो दीपों का यह पर्व अपने कालिमापूर्ण ऐश्वर्य के सार्वजानिक प्रदर्शन का ऐसा अवसर लेकर उपस्थित होता ,जिसे वे कभी अपने हाथ से नहीं निकलने देते .ये लोग तो अपनी जगमगाती दुकानों पर बैठ कर अँधेरे बाँटने का ऐसा व्यवसाय करते हैं जो देखने वालों को हतप्रभ कर देता है .क्या काले धन को सामाजिक स्वीकार्य और प्रशस्ति  दिलाने वाला यह सालाना जलसा हमारी सकुंचित धार्मिक सोच को उजागर नहीं करता है?
                  धरती के जिस भू भाग पर अमावस्या होगी वहाँ तो अंधकार के साम्राज्य का होना तय है ,लेकिन उस अंधकार का क्या ,जिसके आधिपत्य को चुनौती देना वाला ही कोई नहीं .अब  कुछ लोग जो अपने हाथों में जलती हुई सत्य की अग्नि से रौशन दिए और  मोमबत्तियाँ लेकर  अत्याधुनिक हथियारों से लैस घटाटोप अंधकार के खिलाफ मोर्चे पर आ डटे हैं ,वे ही इस धरा से अंधकार को मिटा पाने की धूमिल सी ही सही ,पर आस तो हैं
                   नृशंस हवाओं के खिलाफ दियों के इस निर्णायक युद्ध में महज़ सहानभुति के कुछ शब्दों ,शुभकामनाओं के निस्तेज औजारों और दीगर सांकेतिक उपकर्मों से कुछ नहीं होने वाला ,इसके लिए तो  सक्रिय भागीदारी की दरकार है .आओ , अन्याय, अत्याचार ,पक्षपात छूआछूत ,भ्रष्टाचार, असमानता,जातिवाद , साम्प्रदायिकता और अशिक्षा के खिलाफ अपनी मशालें रौशन  करें और दीपवाली के पर्व को एक सार्थक पहचान दें .
निर्मल गुप्त
           
               

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