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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

उत्सवी माहौल में अँधेरा


यह उत्सवों का मौसम है|धूप का पैनापन कम हो रहा है |ठण्ड की मद्धम -सी पदचाप को रातों में सुना जा सकता है |दिन में अभी भी गर्मी अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए संघर्षरत है |निजी संबंधों में आ रहे निरंतर ठंडेपन के बावजूद प्रकृति अभी भी यथासम्भव गर्माहट बनाए रखने की अपनी हठ पर उसी तरह कायम है जैसे घर का कोई बुजुर्ग अपनी उम्र को नज़रंदाज़ करता हुआ बीते हुए सुनहरे पलों को बारबार जीने की जिद करे |सच तो यह है कि समय तो बहता पानी है ,जो एक बार जहाँ से होकर  गुज़र गया  तो वहाँ लौट कर कभी नहीं आता |हमेशा नूतन और आद्यतन बना रहना ही जीवन है |
           नवरात्र और दशहरे के बाद पर्वों का एक सिलसिला शुरू हो जाता है |नवरात्र से पहले श्राध होते हैं ,जब हम अपनी समझ ,धार्मिक बाध्यता और परम्परा के अनुसार अपने दिवंगत पूर्वजों को स्मरण करने का काम करते हैं |पितरों की अतृप्त आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए हम क्या -क्या नहीं करते |खूब पूड़ी –कचौरी, साग- भाजी ,देसी घी का हलुआ बनता है ,जिसे सब खाते खिलाते हैं |इन दिनों तला -पका न खाने की चिकित्सकों की हिदायतें भी अपनी अर्थवत्ता खो बैठती हैं |किसी अपने प्रियजन को याद करने का इससे अधिक उत्सवी तरीका और क्या हो सकता है भला | इस प्रक्रिया में हमारे दिवंगत पूर्वज कितने संतृप्त हो पाते हैं ,इसका पता किसी को नहीं क्योंकि मृत्यु उपरांत के बाद के जीवन का  अतापता मालूम करने के लिए मरना ज़रूरी शर्त है |अतिउत्साही सत्यान्वेषी भी इसी शर्त के आगे हमेशा  परास्त होते रहे हैं |बहरहाल ,ऐसे ही सांकेतिक प्रदर्शनों से ही हमारा इहलोक समृद्ध और परलोक निरापद और सुरक्षित बनता है ,यही हमारी सनातन सोच और धर्म की अवधारणा है |ऐसे में कुछ  सवाल तो प्राय: निरुतरित ही रह जाते  हैं  कि अपने जीवित बुजुर्गों के प्रति हमारी सदभावना ,प्रेम और श्रृद्धा की इस   उर्वरा भूमि  पर अब नागफनी ही क्यों उगाई जाती हैं ?वानप्रस्थ आश्रमों ,वृद्धाश्रमों और ओल्डएज होम के मुख्य द्वारों पर लटकते  हाउसफुल के बोर्ड हमें लज्जित क्यों नहीं करते ?

अभी नवरात्र आये थे |हमने सुख ,समृधि ,निरोगी काया प्रदाती शक्ति की अजस्र स्रोत माओं को पूर्ण भक्ति भाव से नमन किया |ऐसा हम जाने कबसे बरस दर बरस करते आ रहे हैं |इन देवियों को ,जिन्हें हम माँ कह कर पुकारते हैं ,प्रसन्न करने के लिए नियम सयंम और विधि विधान से उपवास भी रखते हैं |इन उपवासों के पीछे मान्यता संभवतः यही रहा करती है कि कोई माँ अपने भूखे बच्चे को जब भूखा देखेगी तो अपने सामर्थ्य भर उसकी क्षुदा पूर्ति की व्यवस्था अवश्य करेगी |माँ का तो दिल ही ऐसा होता है जो खुद  भूखी रह कर भी बच्चे के मुख में अपने हिस्से का   निवाला भी रख  देती है |कृपया दिल पर हाथ रख कर बताएं कि इन नवरात्रों में आपको उन माओं  की भी कभी याद आई जो अपनी सन्तिति द्वारा उपेक्षित और सताई हुई हैं और जिन्हें मरने के लिए बिना पर्याप्त भोजन ,चिकित्सा और देखरेख के उनके अपने  घरों की किसी अँधेरी, उमस और सीलन से भरी कोठरियों में मच्छरों ,तिलचट्टों और चूहों के सानिध्य में डाल दिया गया है ?आप चाहें तो इस सवाल के जवाब में कोई नायाब तर्क अथवा झूठ गढ़ सकते हैं |पर ध्यान रहे ,तर्कशास्त्र की लाखों पोथियों से निकला हुई  कोई भी दलील एक दिन आपको उसी कोठरी की ओर ले जाने वाला रास्ता बाधित नहीं कर सकती ,जिसमें  आपकी बीमार बूढी माँ की पीड़ा का एक -एक दस्तावेज़ संरक्षित है  |इतिहास अपने को पूरी बर्बरता के साथ ऐसे ही दोहराता है |
            दशहरा आया और हमने दशानन के पुतले को अग्नि के हवाले करके मान लिया कि सत्य पर असत्य की जीत मुकम्मल हुई |अहंकार पराजित हुआ ,अनीति भस्म हो गई |क्या ऐसा हो पाया ?हम कब तक असत्य ,अहंकार और अनीति के रावणों के वध और उसके दहन के सालाना उपक्रम के मूक दर्शक बने रहेंगे ?एक बार पूरी ईमानदारी से अपने भीतर झांक कर देखें ,तो हो सकता है असली रावण और  उसका राक्षसी  साम्रज्य वहीँ कहीं आबाद मिले |इस उत्सवी माहौल में दीप प्रज्वलित करते हुए ,यदि अवसर मिले तो एकाध दिया अपने मन के उन अँधेरे आलों में रख आना ,जहाँ  वास्तव में निर्लज्ज आडम्बर से परिपूर्ण  बहुत अँधेरा है |

निर्मल गुप्त








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