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शनिवार, 10 सितंबर 2011

अंकगणित का उपयोग




लगभग दो दशक पहले मैंने बड़े दुखी मन से लिखा था -यह ऐसा समय है ,जब सुबह का अखबार पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी जल प्रलय के बाद नदी में तैरती लाशें गिनने के लिए विवश हों|वह समय था जब अयोध्या में हुए विध्वंस के बाद चारों ओर व्यापक हिंसा हो रही थी |लिखने को तो मैंने लिख डाला था ,पर मन के भीतर एक गहरा आशावाद था कि हालात सुधरेंगे और शवों की गिनती का घृणित खेल खत्म होगा ,हमेशा -हमेशा के लिए|लेकिन अब लग रहा है कि मेरा आशावाद कितना खोखला और आधारहीन था|एक के बाद एक धमाके हो रहे हैं और आम  आदमी अपनी आत्मा  पर लगे  घावों को चाटता हुआ ,मृत शरीरों की गिनती करने को मजबूर है|आंकड़ों पर निगाहें टिकाये तटस्थता का लिबास पहने विद्वान बता रहे हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में सत्ताईस बार आतंकवादी अपनी करनी में कामयाब हुए हैं और इन घटनाओं में जितने आमआदमी हलाक हुए हैं ,वे हमारी आबादी के विस्तार के क्रम में नगण्य ही माने जायेंगे.मरने वाले मरखप गए ,बच्चे अनाथ हो गए ,औरतें विधवा हो गईं ,रोज़ी रोटी कमा कर सारे परिवार को चलाने वाला चला गया ,पर इससे हुआ क्या? बड़े -बड़े मुल्कों में तो यह सब होता ही है.विशाल देश है ,कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला,तिस पर जनसँख्या का दैत्याकार प्रसार ,इनकी हिफाज़त कौन कर सकता है भला?दिल्ली में हुए हाईकोर्ट ब्लास्ट के बाद आये राजनेताओं के बयानों से स्पष्ट है कि  विशिष्ट ,अति विशिष्ट ,महत्वपूर्ण ,अति महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा  उनकी शीर्ष प्राथमिकता है.आमआदमी कितने मरे ,कितने घायल हुए ,कितने अपंग ,इनका विस्तृत ब्यौरा रखने का काम तो निरर्थक ही है.गिनने -गिनाने का काम तो चुनावों के अतिरिक्त आमआदमी की ही शीर्ष प्राथमिकता होती है ,वे रखें अपने शवों का हिसाब.सपनों के टूटने का लेखा जोखा .झूठे आश्वासनों के हाथों ठगे जाने की बेलेंसशीट|
मुझे याद है कि बचपन में ककहरा के साथ गिनती और पहाड़े सिखाने के लिए म्युनिस्पैलिटी के उस स्कूल में जाने कितनी बार मेरे  कान उमेठे गए,जिसमे पढ़ने के लिए मुझे रोज धकियाया जाता था.उस स्कूल में एक कड़क मिजाज़ मास्टरनी ने गिनतियाँ सिखाते हुए हिदायत दी थी कि गिनती और पहाड़े में जितने अधिक प्रवीण होगे उतने कामयाब इंसान बनोगे .कामयाबी के इसी शार्टकट के महारथी बनने के चक्कर में स्कूल आता जाता राह के पेड़ों को गिनता रहा.कुछ बड़ा हुआ तो झाडियों पर पीली तितलिओं को गिनता रहा.फिर घर की बालकनी में खड़ा होकर उसकी चारदीवारी पर सर टिका कर सड़कों पर आते जाते वाहनों को गिना.कुछ और बड़ा हुआ तो चारदीवारी पर पेट टिका कर मार्ग पर आती जाती सुन्दर लड़किओं को गिना.वयस्क हुआ तो रोमांस गायब हो गया ,अब गिनने के लिए जेब में कुछ सिक्के होते थे और महीने के वे आखिरी दिन ,जो बीतते ही नहीं थे.मेरे शहर में आज भी गणित सीखने का यही तरीका है या कुछ और ,मेरे पास इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है.मेरा मानना है कि केलकुलेटर और कम्प्यूटर के इस युग में गणित में निष्णात होने के अन्य बेहतर तरीके होंगे| वैसे भी कामयाबी के शार्टकट के लिए साधना से अधिक जुगाड़ का अंकगणित अधिक चलन में है|
मेरे शहर के आमआदमी को ,खासतौर पर मेरी पीढ़ी के लोगों को कतई अनुमान नहीं था कि जिस अंकगणित को कामयाबी की कुंजी समझ कर हम बड़े हुए थे उसका उपयोग लाशों की गिनती और भ्रष्टाचार के धुरंधरों द्वारा एकत्र की गई धनसंपदा के विस्मयकारी आंकड़ों को हृद्यागम करने के लिए होना है|दिल्ली हाईकोर्ट धमाके में मरे लोगों की आत्मा की शांति के लिए शहर के सभ्रांत नागरिक और संगठन मोमबत्तियाँ जला रहे हैं ,इनकी मोमबत्ती की लौ सत्ताधारियों या आतंकियों की लापता अंतरात्मा को कैसे और कितना आलोकित कर पायेगी ,इसका पता किसी को नहीं है |


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